साक्षी, पितृसत्ता और संवैधानिक नैतिकता

अमितेश अग्निहोत्री की कलम से:

 

यहाँ नैतिकता क्या है ये बड़ा सवाल है। नैतिकता की परिभाषा हर युग में बदलती रही हैं। आज जो नैतिक है, वो कल अनैतिक हो सकता है और जो अनैतिक है वो कल नैतिक हो सकता है। उदाहरण के तौर पर पति के नपुंसक होने या स्वर्गवासी होने पर स्त्री का किसी ग़ैरपुरुष से मातृत्व सुख पा लेना महाभारत काल मे नैतिक था। स्वयं धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म इसी प्रक्रिया के तहत हुआ। उनके जैविक पिता व्यास मुनि थे। इस प्रथा को नियोग कहा गया। आज के दौर में ऐसा होता तो यह अनैतिक होता। सामान्यतः हर दौर में जो वर्ग शासक होता है वही नैतिकता की परिभाषा और नियम तय करता है। उदाहरण के तौर पर चन्देल राजपूतों के दौर में बने खजुराहो के मन्दिरों में प्रणयरत मूर्तियों का निर्माण अनैतिक नही था। दक्षिण के मन्दिरों में देवदासियों का अस्तित्व उस दौर की नैतिकता थी लेकिन आज यह गैरकानूनी है। पति की मौत होने पर उसकी जलती चिता पर महिला को फेंक देना भारतीय समाज को अनैतिक नही लगता था। यही कारण है कि संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर ने समाज द्वारा स्थापित नैतिकता के मानकों से इतर संवैधानिक नैतिकता की बात की। लोकतंत्र में नैतिकता की परिभाषा संविधान से तय होती है शासक वर्ग से नहीं।

 

फिलहाल सामाजिक नैतिकता खतरे में पड़ गयी है क्योंकि बरेली में सत्तारूढ़ दल के विधायक की बेटी ने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर एक दलित से शादी कर ली। साक्षी के पिता ब्राह्मण होने के साथ ही बाहुबली भी है। समाज में नैतिकता के स्वयम्भू ठेकेदारों ने अपने दिमाग मे भरा गोबर निकाल कर सोशल मीडिया पर उड़ेल दिया है। कुछ अखबार और चैनलों में साक्षी के पति अजितेश के चरित्र पर कीचड़ उछालना शुरू हो गया। भारत मे मीडिया अक्सर ही जज बन कर फैसला सुना देता है। फ़ेसबुक में समाज के कथित बुद्धिजीवी वर्ग के कमेंट पढिये तो पता चलेगा कि देश इक्कीसवी सदी में पहुँच गया है लेकिन इन्हें अभी भी मध्यकाल से प्रेम है।

 

साक्षी ने पिता से विद्रोह कर अंतरजातीय विवाह किया। अयोध्या के एक महंत का कहना है कि यह भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। वैसे रुक्मिणी ने भी अपने पिता के विरुद्ध जाकर कृष्ण से विवाह किया था। कृष्ण यादव थे और रुक्मिणी क्षत्रिय। अजितेश का दलित होना भी सवर्ण समाज के आंदोलित होने की वजह है। सोशल मीडिया पर साक्षी को कोसने वाले भी ज्यादातर सवर्ण समाज से है। इनके लिखे उद्गारों में साक्षी का उदाहरण देकर भ्रूणहत्या को जायज ठहराया जा रहा है। एक बुद्धिजीवी ने कह दिया कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ाओगे तो यही होगा। इस तरह के समाज मे लड़कियां ऑनर किलिंग से लेकर भ्रूण हत्या का शिकार बनती है तो कैसा आश्चर्य। आंकड़ो के मुताबिक साल 2018 के सितंबर से पिछ्ले 3 सालों तक ऑनर किलिंग के 300 मामले दर्ज हुए। अकेले साल 2015 में ही 251 लड़कियों  को उन्हीं के परिवारीजनों नें मार डाला क्योंकि इन लड़कियों नें अपनी मर्जी से प्रेम किया और शादी की। यह आंकड़ा साल 2014 से 79.6 प्रतिशत ज्यादा है।

 

उच्च न्यायालय

शुक्र है कि भारत मे विधि का शासन है और संविधान की रक्षा करने के लिये न्यायपालिका है। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने साक्षी की शादी को मान्यता देते हुए नवदम्पत्ति को पुलिस सुरक्षा देने का आदेश दिया लेकिन उससे पहले ही कोर्ट की चौखट पर कुछ कथित अधिवक्ताओं ने अजितेश और साक्षी से मार पीट करने की कोशिश की। पितृसत्तात्मक समाज मे महिला और दलित दोनों समान धरातल पर खड़े मिलते है। ब्राह्मणवाद पितृसत्तात्मकता और सामन्तवाद का निकृष्टतम रूप है। साक्षी का अस्तित्व ही इनके लिये खतरा है। डर है कि आज इसने किया तो कल बाकी सवर्ण लड़कियां भी ऐसा कर सकती है। पुरूष इस मामले में स्वछंद है। भागती केवल लड़कियां है। लड़के तो स्थिरप्रज्ञ है। ब्राह्मण समाज आंदोलित है क्योंकि साक्षी ने एक दलित से शादी कर ली है। ब्राह्मणों की पंचायत में इस तरह की शादियों पर रोक लगाने की बाते हो रही है। वैसे साक्षी के पिता एमएलए है वो भो एक ऐसी पार्टी से जिसका उद्देश्य भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है लेकिन हिन्दूओ में ही आपस मे रोटी बेटी का संबंध नही है। दलित अजितेश और ब्राह्मण साक्षी की शादी ब्राह्मणत्व का अपमान है। इस सामन्तवादी हिंदुत्व के लिये दलितों का कोई मूल्य नही है। आजादी के पहले तक तो दलितों के नायक भी हाशिये पर थे। इसी ब्राह्मणवाद ने केरल के तटीय इलाकों में दलित महिलाओं को अपने वक्ष तक ढकने नही दिया। 150 साल पहले स्तन ढकने के अधिकार के लिए दलित स्त्री ननगेली ने लड़ाई लड़ी और विरोध स्वरूप अपने दोनों स्तन काट डाले लेकिन देश की हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार ने इस संघर्ष का जिक्र सीबीएसई की कक्षा10 की पाठ्य पुस्तक से हटा दिया। काशी में दलितों पर अत्याचार के घृणित तरीको को दर्शाती फ़िल्म शूद्र पर प्रतिबंध लगा और हाल ही में आयी फ़िल्म आर्टिकल15 पर विवाद हो गया। सच तो यह है कि दलित समाज इस कथित हिंदुत्व की परिभाषा में शामिल ही नही है। रामचरितमानस में ढोल गंवार शूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी कहने वाले तुलसीदास ने दलित स्त्री और जानवर को एक ही वर्ग में रखा। भला हो बाबा साहब अम्बेडकर का जिन्होंने दलितों के अलावा हिन्दू कोड बिल का निर्माण कर स्त्री को भी हजारों साल की दासता से मुक्त किया लेकिन आज भी लोगों को रामराज भारतीय संविधान के शासन से ज्यादा अच्छा समझ आता है।

 

वैसे साक्षी को पिता द्वारा चुने गये पुरुष के साथ ही सोने के हिमायती लोग जब हलाला का विरोध करते है तो उनकी अक्ल पर तरस खाया जा सकता है। आखिरकार हलाला में भी स्त्री पितृसत्ता के आदेशों का ही पालन करती आयी है। फिर इसका विरोध करने का क्या मतलब।

 

कुछ माता-पिता अक्सर एहसान जताते हुए बच्चों को धमकाते हैं कि हमने तुमको पैदा किया है जबकि हक़ीक़त यह है कि पाँच मिनट के कार्यक्रम के बाद आगे की प्रक्रिया पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहता। आगे जो होता है वह कुदरत करती है। पिता या माता केवल जरिया मात्र होते हैं, लेकिन इनको अहंकार इतना है कि इनसे बड़ा सृजनकर्त्ता कोई नहीं है।

 

साक्षी आजाद है और उत्तरप्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता ने कभी लिखा था कि आजाद स्त्रियां डायन होती है।

 

राजपूतों के दौर में बनी खजुराहो के मन्दिरों में प्रणयरत मूर्तियाँ

 

लेकिन साक्षी जैसी लड़कियां पैदा होती रहेंगी। प्रेम का यह स्वभाव है कि वह मनुष्य द्वारा स्थापित जाति, धर्म और अमीर-गरीब के कृत्रिम विभाजन को नही मानता। यही कारण है कि समाज से निकलने वाली अधिकांश प्रेम कहानियाँ अंतरजातीय या अंतर्धार्मिक होती हैं। प्रेम वर्ग सत्ता के विरुद्ध प्रथम विद्रोह है। मीरा का प्रेम भी ऐसा ही था। राजपूत वंश की वधू का राजमहल की दहलीज पार कर जनसामान्य की चेतना से एकाकार हो जाना उस दौर में बहुतों को अनैतिक लगा तो मीरा को जहर दे दिया गया। राधा-कृष्ण की मूर्ति मन्दिर में रखकर चंदा बटोरने वाले लोग अपने आस-पड़ोस में प्रेम के दुश्मन बन जाते है। यह इनकी नैतिकता है लेकिन हाईकोर्ट के फैसले ने साफ कर दिया है कि देश तो संवैधानिक नैतिकता पर ही चलेगा।

 

भड़ास अभी बाकी हैं...