जब ससुराल वालों ने नहीं दिया शीला का साथ...

अमितेश अग्निहोत्री की कलम से:

 

तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित की ससुराल उन्नाव में थी। उनके ससुर स्व उमाशंकर दीक्षित जनपद के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे थे। स्व दीक्षित का राजनैतिक जीवन यशस्वी रहा। वह लंबे समय तक सांसद रहे और देश के गृहमंत्री भी बने और बाद में कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे। स्व दीक्षित के इकलौते पुत्र विनोद दीक्षित के साथ ही शीला दीक्षित का विवाह हुआ था। फतेहपुर 84 ब्लाक स्थित उगु नगरपंचायत शीला की ससुराल बनी लेकिन उन्नाव ने जिस तरह से स्व उमाशंकर दीक्षित को सम्मान दिया वैसा सम्मान उनकी बहू को नही मिल पाया। शीला 90 के दशक के मध्य में उन्नाव से चुनाव लड़ी थी लेकिन यहां के मतदाताओं ने उनके प्रति बेरुखी दिखाई जिसके चलते वह अपनी जमानत भी नही बचा पायी। यह 1996 की बात है जब कांग्रेस से अलग हुए उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री (अब स्वर्गीय) नारायण दत्त तिवारी ने तिवारी कांग्रेस का गठन किया था। उस समय शीला दीक्षित भी उसमें शामिल हो गयी। यह राम मन्दिर आंदोलन का दौर था साथ ही मुलायम सिंह और मायावती के उत्कर्ष ने सूबे में लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के अवसान की शुरुआत कर दी थी। कांग्रेस ने राजा विजयकुमार त्रिपाठी को खड़ा किया तो तिवारी कांग्रेस ने शीला दीक्षित को उतारा। शीला इससे पहले कन्नौज की सांसद रह चुकी थीं। उन्नाव में उनकी ससुराल होने और उनके स्वर्गीय ससुर की जन्मभूमि और कर्मभूमि होने के कारण तिवारी कांग्रेस ने उन्हें टिकट दिया था लेकिन चुनाव परिणाम आये तो कांग्रेस प्रत्याशी राजा विजय कुमार के साथ ही तिवारी कांग्रेस से लड़ रही शीला दीक्षित की जमानत भी जब्त हो गयी।

 


 

उन्हें कुल 11037 वोट मिले जो कुल मतो का मात्र 2.30 प्रतिशत थे। यह शीला दीक्षित के राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी हार थी क्योंकि उनकी ससुराल की जनता ने ही उन्हें बिल्कुल नकार कर भाजपा के देवी बक्श सिंह को अपना रहनुमा चुना। हालांकि बाद में शीला दीक्षित की कांग्रेस में वापसी हुई और पार्टी ने दिल्ली की सियासत की कमान उन्हें सौप दी। इसके बाद शीला दीक्षित 1998 से 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही। साल 2017 में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने शीला के हाथों में यूपी की बागडोर सौपने का मन बनाया था लेकिन बाद में सपा और काँग्रेस का गठबंधन हो जाने के बाद उनकी वापसी पर विराम लग गया। साल 2018में अपनी आत्मकथा सिटीजन दिल्ली-माय टाइम्स माय लाइफ में शीला दीक्षित ने अपनी प्रेम कहानी का विस्तार से जिक्र किया है। वह और विनोद दीक्षित प्राचीन भारतीय इतिहास के विद्यार्थी थे। पांच फीट साढ़े 11इंच लम्बे विनोद अपने साथियों के बीच लोकप्रिय और बेहतरीन क्रिकेटर थे। वह मिलनसार और हंसमुख थे जबकि शीला अंतर्मुखी। अपनी आत्मकथा में शीला लिखती है कि एक दिन अपने दिल की बात करने के लिए वह विनोद के साथ ही दिल्ली की डीटीसी बस की सवारी की। यहां उन्हें पहली बार विनोद ने उनके सामने शादी के लिए प्रस्ताव रखा। तब वह दोनों अपने फाइनल ईयर का एग्जाम देने जा रहे थे। बाद में विनोद ने उन्हें बताया कि उन्होंने अपने परिवार में बता दिया है कि उन्होंने अपने पसंद की लड़की चुन ली है। जिससे वो शादी करेंगे। उस समय विनोद के पिता उमा शंकर दीक्षित देश के गृहमंत्री थे और विनोद उनके एकलौते पुत्र। शीला लिखती है कि इस घटना के कुछ दिन बाद उन्होंने अपने परिवार में इस बारे में बात की लेकिन उनके घर वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नही हुए। क्योंकि विनोद अभी स्टूडेंट ही थे और ऐसे में वह घर गृहस्थी कैसे बसा सकते थे तो यह मामला ठंडा पड़ गया और शीला एक नर्सरी स्कूल में पढ़ाने लगी।

 


 

उधर विनोद सिविल सर्विसेज की परीक्षा की तैयारियों में लग गए और इन दोनों के बीच मुलाकात का सिलसिला थम सा गया। एक साल बाद विनोद भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुन लिए गये और उन्होंने यूपी कैडर को चुना। शीला ने अपनी आत्मकथा में बताया कि विनोद यूपी में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार से आते थे और उनके पिता उमाशंकर दीक्षित उच्च संस्कारो वाले स्वतन्त्रता सेनानी और मृदुभाषी थे। उस समय लोग उन्हें दादा जी कह के बुलाते थे। यह एक अंतरजातीय विवाह था। वह लिखती है कि दादा जी (स्व दीक्षित) ने उनसे बहुत सारे सवाल पूछे थे और वह काफी नर्वस महसूस कर रही थी। दादा जी ने उनसे कहा कि उन्हें शादी के लिए दो हफ्ते दो महीने या फिर दो साल तक इन्तेजार करना पड़ सकता है क्योंकि उन्हें विनोद की माँ को अन्तर्जातीय विवाह के लिए मनाना था। दो साल बाद 11जुलाई 1962में शीला और विनोद वैवाहिक बन्धन में बंध गए। राजधानी दिल्ली की लड़की उन्नाव के छोटे से कस्बे उगु की बहू बनी लेकिन 1996के लोकसभा चुनाव में मिली कडुवी हार की यादें शीला के मन मे बनी रही और बाद के दिनों में उनके परिवार के लोगो का उगु आना जाना लगभग बन्द हो गया। वह आखिरी बार उगु अपने स्व ससुर उमाशंकर दीक्षित के जन्मदिन पर 12 जनवरी 2009 को उगु आयी थी।


भड़ास अभी बाकी है...