ज़िन्दगी कैसी है पहेली, हाय !!

अभी कुछ दिनों पहले 57 साल के अब्दुल गनी गोनी के साथ जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के 23 साल जेल में गुजारे हैं। इसकी वजह तीन राज्यों की पुलिस की ओर से लगाए गए वे आरोप हैं, जिन्हें वह ट्रायल के दौरान साबित करने में नाकाम रही। अब्दुल गनी 1996 में गुजरात एटीएस द्वारा गिरफ्तार किए गए गए थे। लेकिन उनकी यह लंबी तकलीफ उस वक्त खत्म हुई, जब 23 साल बाद उन्हें जयपुर सेंट्रल जेल से निर्दोष होने के कारण रिहा किया गया।

 

ये इकलौता हादसा नहीं है।

 

निर्दोषों की ज़िन्दगी जेल में बिताना और सबूतों के अभाव में उन्हें एक लम्बे अरसे के बाद उन्हें रिहा कर देने जैसी दास्तान में अब्दुल गनी गोनी नाम कोई अकेला नहीं है।49 साल के अली मोहम्मद भट्ट, 40 साल के लतीफ़ अहमद वाजा और 44 साल के मिर्ज़ा निसार हुसैन के साथ भी ऐसा ही हुआ है। अपनी पूरी जवानी जेल में बिताने के बाद अली मोहम्मद भट्ट, लतीफ़ अहमद वाजा और मिर्ज़ा निसार हुसैन को सुबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया। इन सभी को दिल्ली के लाजपत नगर और सरोजिनी नगर में साल 1996 में हुए बम धमाकों में शामिल होने के शक में पुलिस ने हिरासत में लिया था।

 

लेकिन उनके ख़िलाफ़ सुबूत नहीं थे और इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया। इन तीनों को देखकर इनकी परेशानी और बेबसी का अंदाज़ा होता है। जिस समय इन्हें हिरासत में लिया गया था ये सभी अपनी किशोरावस्था के अंतिम दौर में थे। इन्हें काठमांडू से गिरफ़्तार किया गया था, जहां वो कभी-कभी कश्मीरी हथकरघा की चीज़ें बेचने जाया करते थे।

 

अली भट्ट के माता-पिता और ख़ास दोस्त अब नहीं रहे, जब वो जेल में थे उन सभी की मौत हो गई थी।


कौन वापस लाएगा बीता वक़्त?

 

अली भट्ट के छोटे भाई अरशद भट्ट कहते हैं "जेल से छूटने के बाद अली सीधे क़ब्रिस्तान गए और वहां जाकर उन्होंने अपने अम्मी-अब्बू की क़ब्र को गले लगाया और जी भरकर रोए."

 

अरशद बताते हैं,"हमारा व्यापार बहुत अच्छा चल रहा था लेकिन अली की गिरफ़्तारी ने सबकुछ तबाह कर दिया। अब हमारा व्यापार नहीं बचा है और पहले का बचा जो कुछ था वो एक जेल से दूसरी जेल जाने, एक वकील के बाद दूसरे वकील को फ़ीस देने में ख़र्च हो गया।"

 

अश्रुपूरित आवाज़ में अरशद कहते हैं कि हम कोर्ट के फ़ैसले से ख़ुश हैं लेकिन जब ज़िंदगी के क़ीमती साल गुज़र रहे थे तब कोर्ट चुप क्यों थी। कौन उन 23 सालों को वापस लेकर आएगा और अब अली क्या करेगा।

 

लतीफ़ वाज़ा 17 साल के थे जब उन्हें नेपाल से गिरफ़्तार किया गया था।

 

उनका परिवार पुराने कश्मीर के शमस्वरी में रहता है। वो परिवार जिसने बेपनाह दुख उठाए हैं। उनके पिता उनका इंतज़ार करते करते मर गए। उनके इकलौते भाई तारीक़ ने बताया कि लतीफ़ की गिरफ़्तारी के बाद व्यापार बंद करना पड़ा।

 

क्या यही है न्याय?

 

इफ़्तिख़ार कहते हैं कि निसार से मिलने के लिए भी उन्हें और उनके परिवार को 14 साल का इंतज़ार करना पड़ा।निसार के साथ जेल में रह चुके तारीक़ साल 2017 में रिहा हो गए थे।वो निसार और उनकी मां की मुलाक़ात को याद करते हुए बताते हैं,"ये मुलाक़ात एक छोटी सी खिड़की के आर-पार हुई थी।लेकिन इतने सालों के बाद भी दोनों में से किसी ने एक शब्द नहीं कहा।वे सिर्फ़ एक-दूसरे को देखते रहे।रोते रहे।तभी एक अधिकारी वहां आया और उन्होंने उन्हें एक-दूसरे को गले लगाने की इजाज़त दी।लेकिन मां और बेटे की उन भावनाओं को जेल की उन दीवारों ने भी महसूस किया था।"

 

निसार के परिवार और दोस्तों का कहना है कि उन्हें कैसा महसूस हो रहा है वो इसके बारे में बता भी नहीं सकते।

 

अंत में इफ़्तिख़ार मिर्ज़ा ये भी कहते हैं,"हम इस बात से ख़ुश हैं कि अंत में कम से कम न्याय तो मिला।लेकिन क्या सच में इसे न्याय कहा जाना चाहिए? इस नई दुनिया में निसार एक अनजान आदमी है।वो बहुत से रिश्तेदारों को तो पहचानते भी नहीं हैं क्योंकि कई हैं जो उनकी गिरफ़्तारी के बाद पैदा हुए और कई ऐसे हैं जो अब काफ़ी बड़े हो चुके हैं।अगर ये न्याय है तो हमने इस न्याय के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है।"

 

भड़ास अभी बाकी है...