जोश में मोदी सरकार - विपक्ष है बेहाल...

2019 के लोकसभा चुनावों के बाद देश में विपक्ष खत्म होता दिख रहा है। जिस तरह राज्यसभा में अल्पमत के होने के बावजूद सरकार अपना हर बिल आसानी से पास कराने में सफल हो रही है, उससे एक बात तो तय है कि विपक्ष बंटा हुआ है। साथ ही विपक्ष में बैठे लोग सत्ता के खिलाफ सीधे-सीधे बगवाती तेवर आजमाने से डर रहे हैं। आजादी के बाद की सरकारों और उसके लोकसभा और राज्यसभा के आकड़ों पर नजर डाले तो कई बार ऐसा मौके आए हैं, जब सरकार सत्ता पक्ष के आकड़े वर्तमान मोदी सरकार के आकड़ों से बड़े रहे हैं, लेकिन फिर भी विपक्ष कभी इतना डरा और सहमा नहीं दिखा। ऐसे में सवाल ये है कि क्या विपक्ष ने सत्ता पक्ष से समझौता कर लिया है या विपक्ष के पास वो मुद्दे और वो नेता नहीं है जिससे वो  वर्तमान सरकार का विरोध कर सके।

 

नहीं मिल रहा कोई साथ

370 और 35 ए में जिस तरह विपक्ष में फूट पड़ी उससे साफ है, सराकर के विरोध में बैठे नेता ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर सरकार का विरोध कहां करना है कहां नहीं। इन मुद्दों पर विपक्ष में बैठी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस तो दो खेमों में बटती हुई साफ नजर आ रही है। अभी तक कांग्रेस के नेता ये तय नहीं कर पाए हैं कि 370 हटाना सही कदम था या गलत जहां गुलाम नबीं आजाद और अधीर रंजन चौधरी जैसे तमाम नेता जो अल्पसंख्यक वोटरों के इलाके से आते हैं,370 हटाने को गलत बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता सरकार के इस फैसले के साथ हैं। मतलब साफ है कि जब कांग्रेस इस तरह के मुद्दे पर अपनी पार्टी के नेताओं के मत एक नहीं रख पा रही है तो विपक्ष को एक रखना उसके बस की बात नहीं हैं।

 

नाकामयाब हो रहे निशाने

एक ओर जहां विपक्ष मोदी सरकार में लगातार बेरोजगारी बढ़ने, आर्थिक स्थिति के खराब होने के दावे कर रहा है लेकिन उसका विरोध सोशल मीडिया से आगे बढ़ हीं  नहीं रहा है 


 

इसी तरह विपक्ष के नेता उत्तर प्रदेश में ट्विटर और फेसबुक पर तो प्रदेश के कानून व्यवस्था पर जमकर हंगामा काटते हैं लेकिन सोनभद्र जैसे बड़े मामले पर विपक्ष कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाया। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा का आंदोलन भी सोनभद्र से आगे लखनऊ तक नहीं पहुंच पाया आखिर इसके पीछे कारण क्या है। इस मामले की अगर तह तक जाएं तो एक बात साफ है कि विपक्षी पार्टियों ने सिर्फ चुनाव नहीं हारा है बल्कि उनका राजनीतिक वर्चस्व भी धीरे-धीरे खत्म होता चला जा रहा है। चाहें कांग्रेस की वर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी हो या पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधीसपा सुप्रीमों अखिलेश यादव हो या बीएसपी अध्यक्ष मायावती या एनसीपी प्रमुख शरद पवारही क्यों ना हो इन बड़े नेताओं के पिछलेपांच साल के ग्राफ को देखे तो अलग-अलग कारणों से ये नेता अपनी पार्टी के मूल वर्चस्व और आम जनता से कटते गए हैं और इस बात का अंदाजा इन सभी को है और यही वो कारण है जिसके कारण ये सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरने से बचते नजर आते हैं

 

 

2014 में जहां मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, मायावती, लालू प्रसाद यादव जैसे बड़े नेता विपक्ष का चेहरा थे, वहीं 2019 में अगर ममता बनर्जी को छोड़ दे तो विपक्ष के पास कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसकी पकड़ जनता में हो। कांग्रेस जहां अपनी अंदरुनी राजनीति से उबर नहीं पा रही है, वहीं लागातर 2 चुनाव हारने के बाद ये दिग्गज नेता भी अब सरकार के विरोध में खुलकर सामने आने का विचार  भी नहीं करना चाह रहे हैं या यूं कहा जाए कि ये दिग्गज अब जनता की नब्ज समझ पाने में असमर्थ से हो गए है।


भड़ास अभी बाकी है...