बच के रहना...वसूलीभाई से...

ऐसा नहीं है कि डकैती केवल उसी को बोलेंगे जिसमें डाकू चंबल से आया हो और वह गैंग के साथ हो। साथ ही उन सभी ने काले कपड़े पहन रखे हों और सभी के कंधे पर बंदूक लटकी हो। राह चलते हजारों रूपये की यह वसूली भी सफेदपोश डकैती है। यह उतनी ही संगठित है जितनी चंबल वाली हुआ करती थी या फिर कहें उससे भी ज्यादा है। ऐसा लग रहा है कि सरकार राहजनी पर उतर आयी है। केंद्र का नया मोटर वाहन अधिनियम यही दास्तां बयां कर रहा है। किसी पार्टी को बहुमत मिल जाने से उसे संगठित लूट को कानूनी दर्जा देने का हक नहीं मिल जाता है। कोई भी देश और उसकी व्यवस्था एक तर्क से चलती हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के मन में कोई चीज आ गयी और उसको लागू कर दिया गया। लोकतंत्र में किसी तुगलकी फैसले की कोई जगह नहीं है।

 

आज सरकार ने वाहनों के लिए जिस तरह का फाइन लगा रही है क्या उसका कोई ठोस आधार है? किसी से 23 हजार का फाइन लिया जा रहा है तो किसी से 59 हजार का चालान। विभिन्न प्रकार के तय किये गए फाइनों में किसी एक गलती पर सबसे अधिक 10 हजार रुपये का जुर्माना है। तो ऐसा करने का क्या मकसद हो सकता है? गौर करने वाली बात ये है कि जिस देश में न्यूनतम मजदूरी 9000 रुपये हो वहां अगर सरकार किसी बाइक वाले से चालान के रूप में 59 हजार रुपये वसूले तो भला उस महीने और उसके बाद उसके परिवार का गुजारा कैसे चलेगा। आखिर यह सोचने की जिम्मेदारी किसकी है?

 

 

माना कि किसी को गलती की सजा मिलनी चाहिए लेकिन क्या वह इतनी होनी चाहिए कि उससे वह और उसका पूरा परिवार प्रभावित हो जाए। क्या हकीकत में वह इन चीजों को ईमानदारी से लागू करेगा और कोई न कोई बहाना बनाकर वाहन चालकों से अवैध वसूली नहीं करेगा? जिसमें सरकार के खजाने की जगह ज्यादा पैसा उसकी जेब में जाएगा। एक तरह से इसके जरिये लोगों को भ्रष्ट बनाने का एक आसान रास्ता तैयार किया जा रहा है। इस बात में कोई शक नहीं है कि सड़कों पर दुर्घटनाएं होती हैं और उन्हें रोका जाना बहुत जरूरी है। लेकिन इस मामले में किसी और से ज्यादा सरकार जिम्मेदार है। जो अपने बनाए नियमों को ही ठीक तरीके से नहीं लागू करती है या फिर उसके द्वारा मुहैया करायी जाने वाली सुविधाएं उचित नहीं हैं। आकड़ों की बात करें तो हमारे देश में होने वाली दुघर्टनाओं में सबसे ज्यादा मौतें पैदल चलने वालों और बाइकर्स की होती हैं, इसे रोकने के लिए सबसे ज्यादा जो चीज जरूरी है सरकार क्या उसे पूरा करने के लिए आगे आ रही है।

 

लगता है वर्तमान सरकार पूरे देश और समाज में भय का वातावरण पैदा करना चाहती है। पिछले दिनों दलितों से लेकर अल्पसंख्यकों पर हमलों के जरिये एक बड़े हिस्से को उस स्थिति में पहुंचा दिया गया है। जिसमें घर में रहते और सड़क पर चलते भी वह डरा-सहमा रहता है। लेकिन मध्यवर्ग अभी भी इससे अछूता था। लिहाजा ऐसे प्रावधानों और काले कानूनों के जरिये उसको भी उसी श्रेणी में ले जाकर खड़ा किया जा सकता है। दरअसल इसके जरिये सरकार एक तरह से सबको समर्पण की मुद्रा में ले आना चाहती है। और इसी कड़ी में वह ऐसे लोगों को चिन्हित कर उत्पीड़ित कर रही है जिनके द्वारा सरकार के गलत कामों के विरोध की अगुआई करने की संभावना है। इस लिहाज से उस राजनीतिक वर्ग के एक हिस्से को अपने सामने समर्पण करा ले रही है।

 

 

गौर करने वाली बात तो यह है कि आज जब हमारे देश की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है और यह बात देश की जनता को कहने में कोई परहेज नहीं हो रहा है कि उसकी खरीदने की क्षमता खत्म हो गयी है। जिसके चलते पूरा बाजार ही  ठप पड़ गया है। दिलचस्प बात ये है कि सरकार ऐसा काम तब कर रही है जब देश में आटोमोबाइल सेक्टर बिल्कुल तबाह हो गया है। बाजार में मांग न होने के चलते कंपनियों को अपने प्लांट्स दो-दो, तीन-तीन दिन तक बंद करने पड़ रहे हैं। आज  सरकार के इस फैसले से लोग अपने वाहन से चलने या खरीदने को लेकर इतने डरे-सहमे से है कि उन्हें सवारी या पैदल चलना ज्यादा बेहतर तरीका लगने लगा है। कहीं-कहीं तो वाहन चालकों को सम्बंधित कागजात पूरे होने के बाद भी राहत की सांस नहीं मिल रही और रसूखदार आराम से निकल जाते है।

 

भड़ास अभी बाकी है...