हिन्दी हैं हम, वतन है...

कुछ दशक पहले तक कभी एक वक्त था, जब उत्तरी भारत के अधिकतर स्कूली बच्चों के लिए अंग्रेज़ी सिर्फ एक विषय हुआ करता था और हिन्दी अपनी भाषा। लेकिन अब दृश्य लगभग उलट चुका है। पैदा होने के साथ ही जो भाषा आपके कानों में पड़ना शुरू हो जाती हो, उससे लगाव होना स्वाभाविक है, इतना ही नहीं उसे समझना भी आसान हो जाता है। लेकिन किसी भी भाषा को भली प्रकार समझने के लिए व्याकरण को समझना बेहद ज़रूरी होता है और यही आज की पीढ़ी की समस्या है कि उसने हिन्दी को अपनी दूसरी भाषा बना लिया है, जिसमें सोचना और बोलना उसके लिए मुश्किल-सा हो गया है, क्योंकि हिन्दी व्याकरण को विज्ञान, गणित की तरह विषय बना दिया गया है, जिसमें सिर्फ पास होना ज़रूरी है, इसके अलावा और कुछ नहीं। गलीगली में- बड़ी तादाद में अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में हमारे बच्चों को सबसे पहले 'ए फॉर एप्पल, बी फॉर बॉल' पढ़ाना शुरू किया जाता है और जाने-अनजाने में अंग्रेज़ी को ही बच्चे की पहली भाषा बना डालते हैं। इसके अलावा अधिकतर इंग्लिश मीडियम स्कूलों में अंग्रेज़ी में ही बात करने का नियम भी बनाया गया है इतना ही नहीं उसके हिन्दी में बात करने पर जुर्माना भी लगाया जाता है। अब इस माहौल में हिन्दुस्तान का बच्चा हिन्दी कैसे सीख सकता है, जब हिन्दी पढ़ने में उसका मन लगेगा ही नहीं, क्योंकि अंग्रेज़ी में बात नहीं करने पर जुर्माना देने के डर से वह अंग्रेज़ी पर ही मेहनत करेगा। इसके अलावा, जब हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी ही वह भाषा बन जाएगी, जिसमें वह सोचता है, गुन-गुनाता है, तो हिन्दी के हश्र से शिकायत करना व्यर्थ ही है।

 

 

आजकल के बच्चे भी स्कूल से 'गलत' पढ़कर आने के बाद 'सही' बताए जाने पर बहस के मूड में नज़र आते हैं। जब भी उन्हें कुछ सही बताया जाए, उसे साबित कर दिखाना भी ज़रूरी लगने लगता है, क्योंकि आसानी से तो वे हम पर भरोसा भी नहीं कर पाते हैं। व्याकरण की किताबों में आज भी कुछ गलत नहीं है, लेकिन यह महसूस होता है कि हर नियम और परिभाषा को सही तरीके से सिखाए जाने की जितनी और जैसी कोशिश पहले के समय के अध्यापक एवं अध्यापिकायें किया करते थे, वैसी और उतनी कोशिश आज के गुरुजन शायद नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वे भी संभवतः अपने जैसे अध्यापकों से ही पढ़कर आए हैं।

 

वैसे भी आज का युग मोबाइल और टैबलेट पर पढ़ने का युग हो गया है। डिजिटल और किन्डल पर किताबें पढ़ने के शौकीनों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इसीलिए हिन्दी पाठक बहुत कम हो गए है। हकीकत यह है कि रात को बिस्तर पर जाकर सोने से पहले सीने पर किताब रखकर पढ़ने में जो सुकून, जो खुशी, जो संतुष्टि मिलती है, वह किन्डल या और किसी डिजिटल माध्यम से संभव ही नहीं है।

 

 

नई-पुरानी किताबों की जिल्द की अलग-सी गंध ने हम सभी में पढ़ने के शौक को जिन्दा रखा हुआ है। आज जनमानस भड़ास अपने व्यूवर्स से अपील कर रहा है कि वे खुद भी कुछ न कुछ पढ़ने की आदत डालें और अपने बच्चों को भी देखने दें कि आप क्या कर रहे हैं जिससे वे भी वैसे ही बन सकें। यकीन मानिए, अगर ऐसा संभव हुआ, तो हिन्दी की दशा सुधारने के लिए हर साल मनाए जाने वाले हिन्दी दिवस की ज़रूरत नहीं रहेगी। क्योंकि...

 

हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।