अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोकतंत्र के मायनें....

लोकतंत्र में प्रयुक्त ‘लोक’ शब्द अपने विस्तार में समस्त संकीर्णताओं से मुक्त है| ‘लोक’ जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, वर्ग आदि समूह की संयक्त समावेशी इकाई है। 'लोक' में सबके प्रति सबकी सहानुभूति का होना आवश्यक है। जिससे इकाई के रूप में संगठित होकर यह अपनी जीवनशक्ति अर्जित करता है। सम्पूर्ण विश्व में 15 सितंबर को लोकतंत्र दिवस मनाया जाता है। प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की एक थीम होती है। किस देश मे किस शासन व्यवस्था को अंगीकार किया गया है यह उसकी चुनाव प्रक्रिया से ही पता चलता है।जैसे- ब्रिटेन,यूएसएऔर भारतइन तीनों में लोकतंत्र है लेकिन बडी बुनियादी विभिन्नता के साथ। यूके यानी इंग्लैंड में राजशाही के महीन आवरण में छिपा लोकतंत्र है जो बंकिघम पैलेस के अपने शाही क्राउन (राजमुकुट) को हर स्थिति में जीवित रखना चाहता है। दुनिया भर में लोकशाही के नाम से दरोगाई करने वाले अमेरिका में अध्यक्ष प्रणाली वाला लोकतंत्र है, जहां जनता अपना  राष्ट्रपति चुनती है। इस आधार पर हम भारतीय लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र तो कह ही सकते है क्योंकि एक साथ 60 करोड़ वोटर अपने वोटिंग राइट का इस्तेमाल कर सरकार चुनते है। भारतीय संविधान के प्रारंभ में प्रस्तुत पंक्ति 'हम भारत के लोग......हमारी समावेशी प्रकृति की साक्षी है...। 'इस 'हम' में 'सर्व’ का भाव है- किसी वर्ग, वर्ण, संप्रदाय, समूह, आदि का नहीं। यह 'हम' शब्द 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की ओर इंगित करता है। इस 'हम' में समस्त भारतवासियों के कल्याण और उत्थान की उदार भावना समाहित है। 'सबका साथ- सबका विकास' इसका संकल्प है और इसी संकल्प की संपूर्ति में हमारी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता की सार्थकता है। आज इस सत्य को ईमानदारी से स्वीकार करने की आवश्यकता है- 'लोक' (जनसामान्य) को भी और 'तंत्र' (नेतृत्व-प्रशासन) को भी।

 

 

यह विचारणीय है कि सैद्धांतिक स्तर पर देश की एकता और अखंडता के प्रति प्रतिबद्धता का संकल्प निरंतर दोहराने और सामाजिक न्याय, समानता एवं समरसता के लोक लुभावन नारे उछालने वाले हमारे 'तंत्र’ ने व्यावहारिक धरातल पर सत्ता पर अबाध अधिकार पाने की दुराशा में वोट बैंक बनाने के लिए 'लोक' को अनेक समूहों में बांटने की जो कूट रचनाएं रचीं उसके कारण आज हमारा लोकतंत्र भयावह समस्याओं से ग्रस्त है। भड़काऊ भाषण, समस्त 'लोक' के स्थान पर 'समूह विशेष’ के हितसाधन का प्रयत्न, उग्र-हिंसक आंदोलन और आंकड़ों के गणित में उलझी कथित राजनीति ने जनजीवन को असंतोष, अशांति असुरक्षा और भय से भर दिया है। इतना ही नहीं आज 'लोक' की निरंकुशता और 'तंत्र' की तानाशाही ने आज हम सभी की स्वतंत्रता का पथ कंटकाकीर्ण कर दिया है। वैसे तो लोकतंत्र में सत्ता जनता की सेवा का माध्यम है, विलासितापूर्ण सामंती दुरभिलाषाओं की पूर्ति का नहीं। सेवा के पथ पर संघर्ष नहीं होता किंतु अधिकाधिक सुख-सुविधा संचय की चाहत, जनता की गाढ़ी कमाई के बल पर व्यक्तिगत विलासिताएं जुटाने की इच्छा राजनीतिक दलों के मध्य गलाकाट स्पर्धा पैदा करती है। दुर्भाग्यवश आज हमारा लोकतंत्र इसी दिशा में अग्रसर है। अपनी पसंद के नेता पर विश्वास करना सहज स्वाभाविक है किंतु उसके गलत निर्णयों का भी आंख मूंदकर समर्थन करना लोकतंत्र के हित में नहीं है। इसे किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता। वर्तमान प्रतिकूल परिस्थितियों में 'लोक' को आगे बढ़कर 'तंत्र’ का मार्गदर्शन करने की आवश्यकता है। वोटों के चुनावी गणित में उलझी तुष्टीकरण की आत्मघाती राजनीति करने वालों के कारण 'तंत्र’ अपने 'लोक' को सही दिशा नहीं दे पा रहा है।

 

 

लोकतंत्र को भीड-तंत्र में बदलना खतरनाक खेल है। रैलियों, सभाओं, यात्राओं के रूप में 'तंत्र' खुलेआम यह खेल रहा है। शक्ति-प्रदर्शन की इस होड़ में शक्ति, समय और धन का दुरुपयोग तो हो ही रहा है, साथ ही जनजीवन भी यातायात आदि व्यवस्थाओं के बाधित होने से असुविधा अनुभव करता है। लोकतंत्र की सफलता 'लोक' और 'तंत्र' दोनों की जागरूकता पर निर्भर करती है, लेकिन विडम्बना यह है कि हम अपने सामूहिक स्वार्थों के प्रति जागरूकता प्रकट करते हैं, लोकहित के प्रति नहीं। समाज में ग्रामों से नगरों की ओर पलायन की तथा एकल परिवारों की स्थापना की प्रवृत्ति पनप रही है। इसके कारण संयुक्त परिवारों का विघटन प्रारंभ हुआ। उसके कारण सामाजिक मूल्यों को भीषण क्षति पहुंच रही है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवारों को तोड़कर हम सामाजिक अनुशासन से निरंतर उच्छृंखलता और उद्दंडता की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। यदि हम विभाजित मानसिकता को त्यागकर राष्ट्रीय-चेतना के एक सूत्र में बंध कर सारे समाज के हित-साधनों के लिए जागरूक हों, आपसी वैमनस्य एवं विगत घटनाओं की कटुता त्याग कर पारस्परिक सहयोग का संकल्प लें तो हमारा लोकतंत्र अधिक सशक्त और सार्थक बनेगा।


वैसे तो हमारे देश में बदलाव की बयार तो बह रही है, महसूस कौन कितना कर पा रहा है, यह सोचने वाली बात है। सूचना प्रवाह के इस युग में हम समूची दुनिया से जुड़ चुके हैं। हमारे देश में हर जगह, हर वर्ग और हर स्तर बदलाव की अनुभूति कर रहा है। लेकिन इस बदलाव की बहार के बीच यह बुनियादी सवाल उठाए जाने की भी जरूरत है कि हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी जनवादी (लोकतांत्रिक) गणराज्य में जी रहे हैं क्या वह सही दिशा की ओर अग्रसर है।

 

भड़ास अभी बाकी है...