तुगलकी अंदाज़ में मोदी सरकार...

चौदहवीं सदी में दिल्ली की तख्त पर राज था मोहम्मद बिन तुगलक का। उसने राजधानी दिल्ली से हटाकर महाराष्ट्र के देवगिरी ले जाने का फैसला किया और दिल्ली के लोगों को भी वहीं बसने का फरमान सुनाया। इस चक्कर में कितने ही लोगों की मौत हो गई। आज तुगलक का वह फरमान ताजा सा लग रहा है। कारण, मोदी सरकार भी कुछ वैसा ही कर रही है। उसने निशाने पर लिया है लुटियंस दिल्ली का दिल यानी संसद भवन से लेकर राष्ट्रपति भवन, नॉर्थ और साउथ ब्लॉक, इंडिया गेट तक के तीन किलोमीटर के इलाके को। इसका नए सिरे से निर्माण होना है। आवास एवं शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी ने स्वीकार भी किया है कि यह नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है और वह चाहते हैं कि 2022 में संसद का मानसून सत्र नए भवन में हो तथा समूचा प्रोजेक्ट 2024 तक पूरा हो जाए। यानी अगले तीन से पांच सालों में इसे पूरा करना होगा। दिक्कत की बात यह भी है कि अभी काफी कुछ हवा में है। किसी को नहीं पता कि प्रोजेक्ट पर कितना खर्च होगा। कोई नहीं जानता कि कौन-सी बिल्डिंग को गिराना है, किसे बचाना है। जाहिर है, अटकलों का बाजार गर्म है। सीपीडब्ल्यूडी के सूत्रों का मानना है कि इस पर 15 हजार करोड़ या इससे भी अधिक धनराशि खर्च होगी। 1927 में जब हमारा संसद भवन बना था, तब इस पर 80 लाख का खर्च आया था। जिस हड़बड़ी में सीपीडब्ल्यूडी ने इसके लिए निविदा निकाली, वह भी अजीब है। परियोजना के सलाहकार कार्यों के लिए पहले 2 सितंबर को आर्किटेक्चर फर्मों से निविदाएं मांगी गईं। लेकिन फिर इनमें ताबड़तोड़ पांच संशोधन करने पड़े। धरोहर राशि को 50 लाख से घटाकर 25 लाख किया गया और निविदाएं प्राप्त करने की अंतिम तारीख 23 सितंबर से बढ़ाकर 30 सितंबर की गई।

 

 

मूल निविदा में सलाहकार फर्म के लिए शर्त थी कि उनके पास समान कार्यों का अनुभव हो तथा उन्होंने राज्य अथवा केंद्र सरकार की कम से कम 250 करोड़ रुपये के किसी सिंगल बिल्डिंग प्रोजेक्ट को पूरा किया हो। वहीं 12 सितंबर को प्री-बिड बैठक हुई जिसमें 17 संगठनों ने भाग लिया। इसमें एक था, डिजाइन फोरम इंटरनेशनल जिसने बिडिंग प्रक्रिया में भाग लेने के लिए ज्वाइंट वेंचर का प्रस्ताव किया लेकिन सरकार ने मना कर दिया जबकि अभी वह अकबर रोड पर वाणिज्य भवन का निर्माण कर रहा है। वैसे, इस तरह का संदेह जताया जा रहा कि या तो किसी विदेशी कंपनी या फिर सालाना 10,000 करोड़ का कारोबार करने वाली सरकारी कंपनी एनबीसीसी को काम सौंपने की भूमिका तैयार की जा रही है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हमें संसद का नया भवन चाहिए? क्या इस बात की जरूरत है कि राजधानी के 70,000 केंद्रीय कर्मचारी एक ही कैंपस में बेठें? जितनी भी जानकारी है, उसके मुताबिक सीपीडब्ल्यूडी, डीडीए या किसी और एजेंसी ने अब तक इस प्रोजेक्ट की जरूरत को लेकर कोई सर्वे नहीं किया है। न ही इसके कारण विरासत को होने वाले नुकसान का कोई अध्ययन किया गया है। लंदन के वेस्टमिनिस्टर और वाशंगटन डीसी स्थित कैपिटल हिल कॉम्पलेक्स पर गौर किया जाना चाहिए। ये दोनों भारतीय संसद से कहीं पुराने हैं। इनमें बार-बार बदलाव किए गए, लेकिन इसकी बाहरी शक्ल-सूरत को बनाए रखा गया। वैसे, संभव है कि प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली पर ऐसी छाप छोड़ना चाह रहे हों जो सदियों तक जिंदा रहे।

 

 

यह बात और है कि इस प्रोजेक्ट के प्रति आम आदमी से लेकर विरासत संरक्षण से जुड़े लोग समान रूप से दुखी हैं। आपकी प्राथमिकता इस पर होनी चाहिए कि आपकी जरूरत क्या है और वो कैसे पूरी हो सकती है। एक बात जरूर है कि ऐसे काम को हड़बड़ी में नहीं करना चाहिए, इसके लिए दस साल का समय दिया जाना चाहिए था। हड़बड़ी में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स के निर्माण कार्यों से लेकर नोटबंदी और जीएसटी का उदाहरण भी हमारे सामने है और उसके नतीजे भी अनुकूल नहीं रहे है। वहीं विदेश मंत्रालय साउथ ब्लॉक नहीं छोड़ना चाहता जबकि नए भवन में मंत्री और उनके स्टाफ के लिए विशाल कमरों की व्यवस्था है। क्या यह बर्बादी नहीं?”

 

 

 

लुटियन जोन की सूरत बदलने का मामला बार-बार उठता रहा है। 2007 में दिल्ली अर्बन आर्ट कमीशन के अध्यक्ष स्व. चार्ल्स कोरिया लुटियन जोन के तमाम बंगलों को तोड़कर वहां बहुमंजिला इमारतें और दफ्तर परिसर बनाने के हिमायती थे। तब कमीशन पर विरासत की चिंता न कर रियल एस्टेट डेवलपर्स के हितों के लिए काम करने के आरोप लगे थे। यह मामला 2012 में भी सामने आया जब मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष थीं। नॉर्थ और साउथ ब्लॉक का पिछली बार 1980 के दशक में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते पुनरोद्धार किया गया था। सीजीओ कॉम्प्लेक्स का भी उदाहरण सामने है। जब यह बनकर तैयार हुआ, तमाम विभागों ने वहां भी जाने से इनकार कर दिया था। आईबी, सीबीआई, सीआरपीएफ के तमाम विभागों के प्रमुख लंबे समय तक अपने पुराने दफ्तरों में ही बैठते रहे। खैर, ऐसा लगता है कि इस सरकार के पास अनाप-शनाप पैसा है जिससे वह एक नई राजधानी बनाना चाहती है।

 

 

भड़ास अभी बाकी है...