बाकी सब First Class है...

सब कुछ ठीक है-नही है तो ठीक हो जाएगा ! आज हम सभी इसी मुगालते में जी रहे हैं जबकि हकीकत तो ये है कि हमारे पैरों के नीचे से जमीन बड़ी तेजी से खिसक रही है। आज महंगाई की सीमा का आकंलन कर पाना सोच से परे हो चुका है। प्याज, टमाटर जैसी सब्जियां कभी भी महंगी हो जाती हैं और उनके पीछे कोई न कोई वजह निकल आती है। अनाज, फल, सब्जियों, दूध उत्पादों, अंडे, मांस-मछली, कोई ऐसी भोजन की वस्तु नहीं है, जो महंगी न हुई हो। पेट्रोल-डीजल के दाम रोज बढ़ रहे हैं। अब रसोई गैस भी महंगी हो गई है। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मोदी सरकार जो ऐलान कर रही है, उससे बेशक बड़े कार्पोरेट घरानों को ही लाभ हो रहा होगा, लेकिन शेयर मार्केट अब भी लड़खड़ा रहा है। सेंसेक्स और निफ्टी की इस घट-बढ़ में छोटे निवेशकों को ही नुकसान होता है, बड़े खिलाड़ी तो हमेशा फायदे का सौदा ही करते हैं। आर्थिक मंदी के इन हालात को सरकार रोजाना नयी-नयी घोषणाओं से छिपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन सच किसी न किसी तरह बाहर आ ही रहा है। जीएसटी को लेकर सरकार ने बड़ी-बड़ी बातें की थीं, लेकिन उसका लक्ष्य भी सरकार पूरा नहीं कर पा रही है। सितंबर में जीएसटी संग्रह अगस्त की तुलना में करीब छह हजार करोड़ कम हुआ। अगस्त में जीएसटी संग्रह की राशि 98,202 करोड़ रुपये थी, जो सितंबर महीने में घटकर  91,916 करोड़ रुपये हो गई। अगस्त में कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी उत्पाद, उवर्रक, इस्पात, सीमेंट और बिजली इन प्रमुख आठ उद्योगों में उत्पादन 0.5 प्रतिशत गिरा है। इन क्षेत्रों में कई सार्वजनिक कंपनियां हैं, जिनके विनिवेश की तैयारी सरकार कर रही है। घाटे में चल रही एयर इंडिया को उबारने की कोई युक्ति नहीं सूझ रही, तो उसे बेचकर सरकार अपनी जिम्मेदारी कम करना चाहती है और इसके साथ-साथ दीवाली पर सार्वजनिक निकायों के महा सेल की तैयारियां भी चल रही हैं। भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन, कन्टेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (कॉनकोर) और शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया जैसी सरकारी कंपनियों में स्ट्रैटिजिक सेल को मंजूरी दी। सरकार ने इस वित्त वर्ष में विनिवेश के जरिए 1.05 लाख करोड़ रुपये जुटाने का प्रस्ताव किया है। हजारों करोड़ों की ये कंपनियां हवा में खड़ी नहीं हो गई थीं।

 

 

आजादी के बाद भारत को आर्थिक आत्मनिर्भरता दिलाने के लिए तब की सरकारों ने दूरदृष्टि और सूझ-बूझ दिखाते हुए इन सार्वजनिक निकायों को खड़ा किया था। जिनमें नौकरी करना सम्मान की बात होती थी। लाखों लोगों को इन कंपनियों में रोजगार मिला था। इनके कर्मचारी जिन रिहायशी इलाकों में रहते थे, वे लघुभारत की तरह होते थे, जहां सभी प्रांतों के लोग मिलजुल कर रहते थे। एकता कायम करने के लिए अलग से नारे देने की जरूरत नहीं होती थी। अब जैसे-जैसे इन कंपनियों की हिस्सेदारी बेची जाएगी, वैसे-वैसे ये लघुभारत भी बिखरते जाएंगे। सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचकर कुछ हजार करोड़ रुपए जुटा भी लेगी, लेकिन क्या उससे आर्थिक समस्याओं का समाधान हो पाएगा? सार्वजनिक निकायों का विनिवेश वैसा ही है कि अपनी नालायकी के चलते हुए नुकसान की भरपाई के लिए पुरखों की जुटाई संपत्ति को औने-पौने दाम में बेचा जाए, ताकि तात्कालिक जरूरत पूरी हो जाए। लेकिन भविष्य में क्या होगा, इसकी चिंता न की जाए। मोदी-शाह बात-बात पर नेहरू को कोसते हैं, लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि भावी पीढ़ियां उनका भी मूल्यांकन करेंगी और इसमें वे क्या याद करेंगी कि कैसे किसी न किसी बहाने देश की संपत्ति को इस सरकार ने निजी हाथों में देकर नए तरह की गुलामी का इंतजाम किया। विनिवेश के पीछे सरकार राजकोषीय घाटे को पूरा करने की दलील दे सकती है।

क्या इसके लिए सरकार को अपनी नीतियों को परखने की जरूरत नहीं है कि आखिर उसके किन फैसलों से सरकार का घाटा बढ़ा है। अभी तो बेचने के लिए सार्वजनिक संपत्तियां हैं, कुछ साल बाद ये भी नहीं रहेंगी तो सरकार क्या करेगी? रेलवे, दूरसंचार, ऊर्जा, तेल सबका अगर निजीकरण हो जाएगा, तो जनता के लिए जीवन यापन कितना कठिन हो जाएगा, क्या इस बारे में कोई विचार किया गया है?

 

 

आज हालातों से तो यही नजर आ रहा है कि सरकार अपने हाथ आए उस्तरे को किसी भी दिशा में चला रही है, कैसे भी लहरा रही है। जिससे जनता को रोजाना महंगाई से दो-चार होना पड़ रहा है, लेकिन धर्म, जाति, भाषा के सवाल शायद ज्यादा मायनें रखते है। सब First Class है! ये महज़ दिलासा है या हकीकत ये तो आने वाला वक़्त ही तय करेगा।    


भड़ास बाकी है...