क्या अपनी आवाज़ उठाना भी राष्ट्रद्रोह है !

लोकहित से जुड़े वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर 'देश कि छवि' की कथित चिंता करने वाले तथाकथित राष्ट्रवादियों की इन दिनों बाढ़ सी आयी हुई है। जिन्होंने और जिनके परिवार के किसी भी सदस्य ने भी आज तक देश हित के लिए शायद कोई भी योगदान न दिया हो वही राष्ट्रवाद का झण्डा उठाए हुए है और उसे उसके अपने विचारों के विरुद्ध नज़र आती कोई भी बात 'राष्ट्र विरोधी' नज़र आ रही है। ज़ाहिर है ऐसी बातें करने वाले लोग,संगठन या पार्टी सभी राष्ट्र विरोध और यहाँ तक की राष्ट्र द्रोही की सूची में डाल दिए गए हैं। यदि आप 'सत्ता भक्तों' से पूछिए कि नौकरियों के नए अवसर पैदा होने के बजाए लाखों लोगों की नौकरियां क्यों जा रही हैं तो आप राष्ट्र विरोधी कहे जाएंगे। आप मंहगाई,किसानों की बदहाली,बाज़ार में छाई मंदी,क़ानून व्यवस्था,भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन,अर्थव्यवस्था में आ रही सुस्ती,अल्पसंख्यकों या दलितों पर आए दिन हो रहे अत्याचार,देश में बढ़ती साम्प्रदायिकता,जातिवाद या फिर मानवाधिकार से सम्बंधित कोई भी बात करें तो यह अंधभक्त बिना समय गंवाए हुए आपके माथे पर राष्ट्रविरोधी अथवा राष्ट्रद्रोही का लेबल चिपका देंगे और इंतेहा तो यह है कि इन तथाकथित राष्टभक्तों के सरग़नाओं ने तो स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने तथा स्वतंत्रता के बाद देश को तरक़्क़ी की राह पर लगाने वाली कांग्रेस पार्टी को भी राष्ट्रविरोधी बताना शुरू कर दिया है। ऐसे में इस बात पर चिंतन किया जाना बेहद ज़रूरी है कि आख़िर 'देश की छवि' को कौन धूमिल कर रहा है और यह भी कि 'देश की छवि धूमिल' करने की परिभाषा और इसकी व्याख्या है क्या? देश में विभिन्न स्थानों से धर्म के नाम पर भीड़ द्वारा की जानी वाली हिंसा के प्रति चिंता जताते हुए देश की सम्मानित हस्तियों ने प्रधानमंत्री जी को एक पत्र भी लिखा। जिन लोगों ने प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखा उनमें इतिहासकार,फ़िल्मकार, अभिनेत्री, फ़िल्म निर्देशक, अभिनेता तथा गायिका आदि प्रमुख हैं। इन बुद्धिजीवियों ने अपने पत्र के माध्यम से प्रधानमंत्री जी से मांग की कि मुस्लिमों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों पर भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट्स के मुताबिक़ 2016 में दलितों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न की 840 घटनाएं हुईं। लेकिन इन मामलों के दोषियों को मिलने वाली सज़ा का प्रतिशत कम हुआ है।

 

 

पत्र में एक आंकड़ा पेश किया गया जिसके अनुसार जनवरी 2009 से 29 अक्टूबर 2018 तक धार्मिक पहचान के आधार पर 254 घटनाएं दर्ज हुईं। इनमें 91 लोगों की मौत हुई तथा 579 लोग घायल हुए। मुस्लिमों के विरुद्ध होने वाली हिंसा के 62% मामले, ईसाइयों के विरुद्ध हिंसा के 14% मामले दर्ज किए गए। प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए इस पत्र में यह भी कहा गया था कि मई 2014 के बाद से जब से आपकी (नरेंद्र मोदी) सरकार सत्ता में आई है तब से भीड़ द्वारा हमले के 90% मामले दर्ज हुए। आप संसद में मॉब लिंचिंग की घटनाओं की निंदा कर देते हैं, जो पर्याप्त नहीं है। सवाल यह है कि ऐसे अपराधियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई? पत्र में यह भी लिखा गया कि इन घटनाओं को ग़ैर ज़मानती अपराध घोषित करते हुए तत्काल सज़ा सुनाई जानी चाहिए। यह सवाल भी किया गया कि यदि हत्या के मामले में बिना पैरोल के मौत की सज़ा सुनाई जाती है तो फिर लिंचिंग के लिए क्यों नहीं? यह ज़्यादा जघन्य अपराध है। नागरिकों को डर के साए में नहीं जीना चाहिए। अपने पत्र में इन लेखकों, फ़िल्मकारों एवं इतिहासकारों ने यह भी लिखा कि इन दिनों "जय श्री राम" एक हथियार बन गया है। इसके नाम पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं। यह चौंकाने वाली बात है। अधिकांश हिंसक घटनाएं धर्म के नाम पर ही हो रही है। यह मध्य युग नहीं है। भारत में राम का नाम कई लोगों के लिए पवित्र है। इसको अपवित्र करने के प्रयास रोके जाने चाहिए। उन्होंने यह भी लिखा कि सरकार के विरोध के नाम पर लोगों को 'राष्ट्र-विरोधी या शहरी नक्सल नहीं कहा जाना चाहिए और न ही उनका विरोध करना चाहिए। अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। असहमति जताना इसका ही एक भाग है।सोचने का विषय यह है कि उपरोक्त पत्र में क्या ग़लत लिखा गया है? देश की चिंतित जनता यदि अपने प्रधानमंत्री को पत्र न लिखे तो किसे लिखे ? और यदि यह पत्र लिखना अपराध है तो भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का अर्थ ही क्या है ? परन्तु बिहार में मुज़फ़्फ़रपुर में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएम) के आदेश के बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले बुद्धिजीवियों के विरुद्ध एक प्राथमिकी दर्ज की गई।

 

 

एक स्वयंभू राष्ट्रभक्त ओर से दो महीने पहले दायर की गई एक याचिका पर यह प्राथमिकी दर्ज हुई थी। याचिकाकर्ता का आरोप था कि इन हस्तियों ने देश और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को कथित तौर पर धूमिल किया। यह प्राथमिकी भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं के तहत दर्ज की गयी थी जिसमें राजद्रोह, उपद्रव करने, शांति भंग करने के इरादे से धार्मिक भावनाओं को आहत करने आदि से संबंधित धाराएं लगाई गईं थीं। सवाल ये है  कि प्रधानमंत्री को पत्र लिखने से देशद्रोह का मामला कैसे बन सकता है? इन लोगों के विरुद्ध पुलिस में केवल इसलिए मामला दर्ज किया गया क्योंकि उन्होंने देश में मॉब लिंचिंग पर चिंता जताकर एक नागरिक का कर्तव्य पूरा किया था। क्या नागरिकों की आवाज़ को बंद कराना, अदालतों का दुरुपयोग करना ‘उत्पीड़न' नहीं है?” बहरहाल, मुक़दमा दर्ज होने के बाद जब बिहार पुलिस ने इस सम्बन्ध में जांच पड़ताल की तो उसने अपनी जांच में 49 बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ की गई शिकायत को झूठ व बेबुनियाद पाया। जांचकर्ता बिहार पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यह शिकायत तथ्यहीन, आधारहीन, साक्ष्यविहीन और दुर्भावनापूर्ण थी। इस पूरे मामले को तथ्यहीन, आधारहीन, साक्ष्यविहीन और दुर्भावनापूर्ण बताया। उपरोक्त पूरे प्रकरण में क्या यह सोचने के बिंदु नहीं हैं कि आख़िर 'देश की छवि धूमिल' कैसे हो रही है ? कौन कर रहा है देश की छवि को धूमिल? क्या जिन घटनाओं एवं कारणों को लेकर प्रधानमंत्री को शिकायती पत्र लिखकर अपनी चिंता जताई गयी उन घटनाओं एवं कारणों के चलते देश की छवि धूमिल नहीं हो रही है ? या इन कारणों के सम्बन्ध में प्रधानमंत्री को अवगत कराना एवं जागरूक नागरिक का परिचय देते हुए अपनी अभिव्यक्ति का प्रयोग करना ही 'देश की छवि धूमिल करने' के सामान है ? या फिर इन शिकायतकर्ताओं के विरुद्ध मुकदमा दायर करना और याचिका के माध्यम से सरकार की ख़ुशामद एवं चाटुकारिता कर अपनी 'सत्ता भक्ति' का प्रदर्शन करना देश की छवि धूमिल करने जैसा है? यह फ़ैसला स्वयं जनमानस को करना चाहिए कि क्या अपनी आवाज उठाना भी राष्ट्र छवि को धूमिल करने जैसा हो गया है !


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