राजनीतिक गोलबंदी का केंद्र बनते धार्मिक अनुष्ठान...

आजादी से लेकर अब तक बहुत बदलाव हुआ है। अर्थव्यवस्था बदली है, लोगों की अकांक्षाएं बदली हैं, नया मध्यवर्ग बना है, पूरी सूचना तकनीन का एक बड़े उद्योग के रूप में स्थापित हुई है। लेकिन यह सब बहुत सीमित दायरे में हुआ है। संसाधन के बंटवारे में इंसाफ नहीं हुआ। सिर्फ एक खास तबके के जीवन में बदलाव आया है। यह सब कुछ 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद हुआ है। कुछ न कुछ तो सही हुआ होगा तभी यह सब संभव हुआ है। लेकिन, जो नहीं बदला है, वह है हमारा जातिवाद, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास। धार्मिक अनुष्ठानों को राजनीतिक गोलबंदी में तब्दील कर दिया गया है। दिमाग का विभाजन हुआ है। यह बहुत भयानक है। कहीं न कहीं यह खत्म होगा। अगर यह रहेगा तो समाज और दूषित हो जाएगा। आज हमारे देश में मुसलमानों के भविष्य को अलग-अलग तरीके से देखा जा सकता है। इस वक्त केरल और बंगाल में मुसलमानों की हालत अलग है। दरअसल मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा संकट हिंदी पट्टी में आया है। ऐसा लग रहा है कि ये इलाके एक देश नहीं बल्कि अलग-अलग हिस्से हैं। भगवा ताकतें दलितों के राजनीतिक एकीकरण में लगी हुई हैं और इसके साथ मुसलमानों को अलग-थलग करने की कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन सामाजिक एकीकरण करने में उन्हें अभी भी दिक्कत हो रही है क्योंकि दलितों को अपने घर में बैठाने में उन्हें समस्या है।

 

 

 

जो मुख्यधारा बन रही है, उसमें फर्क है। हमारे नेताओं ने मुल्ला-मौलवियों से दो वजहों से समझौता कर लिया है। हिन्दुओं और मुसलमानों का देश में अलग-अलग तरह से विकास हुआ। विभाजन के बाद एकीकरण के जो तत्व थे वे कमजोर हो गए। जिसे हम गंगा-जमुनी तहजीब कहते थे, वे कमजोर हो गए। मुस्लिम नेतृत्व धीरे-धीरे समझौता करने को मजबूर होगा और जो समझौता करेगा वह मौलवी होगा। क्योंकि दक्षिणपंथ को मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर मौलवियों को सामने रखना सुविधाजनक लगता है, ताकि वे उन्हें कट्टर लोगों की तरह दिखा सकें और यह बता सकें कि मुसलमान ऐसे ही होते हैं। हम एक त्रिकोण में फंस गए। हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान और आर्थिक मंदी वह त्रिकोण है। यह आपस में जुड़े हुए ऐसे जटिल मुद्दे हैं जिनमें किसी एक को भी छूने पर असर सब पर पड़ेगा। इसे फिलहाल कोई समझना नहीं चाह रहा है। अगर जो इन दिनों हो रहा है, वैसे ही चलता रहा तो इस त्रिकोण से हम नहीं निकल पाएंगे, बहुत नुकसान हुआ है। बहुत सामाजिक उथल-पुथल हुई है। कई तरह के झूठ बोले गए और उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल किया गया, यह बात उनके समर्थकों की समझ में नहीं आ रही है, जो हल्ला बोल किये हुए है।दो प्राचीन सभ्यताएं जो एक दूसरे के आसपास बसी हुई हैं, उनमें हमेशा एक प्रतिस्पर्धा रहेगी। यह बात बिल्कुल गलत कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों में पड़ोसी देश मित्रवत रहते हैं।

 

 

वास्तव में, पड़ोसी मुल्कों से बेहतर संबंध रखना एक कुटनीतिक कला है। हम अपने पड़ोसी देशों के साथ ऐसा करने में नाकामयाब रहे हैं। चीन हमसे कई मामलों में आगे है और हर वक्त इस तथ्य को सामने रखना चाहेगा। आप अपने एक पड़ोसी देश से कैसे निपटेंगे जो आर्थिक और तकनीकी रूप से आपसे आगे है? सत्ता-संतुलन बनाकर आप ऐसा कर सकते हैं। हम वहां भी असफल हो रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय सीमा एक जटिल मुद्दा है।वहीं एक अलग परिस्थिति में ब्रिटिश साम्राज्य ने जो सीमाएं बनाई थी, हम उसका फायदा ले रहे हैं। दूसरे शब्दों में, एक शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य ने जबरदस्ती एक सीमा खींच दी, हम उसे बनाए रखना चाहते हैं, जबकि हम कहते हैं कि हम उनसे आजाद हुए हैं।इस सरकार की विदेश नीति पुरानी सरकारों से काफी अलग नहीं है। नब्बे के दशक तक हमारी विदेश नीति अलग थी। उस समय दुनिया के स्तर पर दो गुट थे और हम किसी के साथ नहीं थे। हालांकि हमारी गुटनिरेपक्षता सोवियत संघ के प्रति थोड़ी झुकी हुई थी। इसकी वजह यह थी कि वे हमारे करीब थे। उन्होंने बंगलादेश के निर्माण में अहम भूमिका निभाई थी। 1990 के बाद, सोवियत संघ का पतन हो गया, इसलिए हमें गुटनिरपेक्षता से थोड़ा हटने की जरूरत महसूस हुई, लेकिन हम जल्दबाजी दिखाते हुए पूरी तरह से दूसरे गुट का हिस्सा हो गए।


भड़ास अभी बाकी है...