ये क़ानून की हार है या बन्दूक की जीत !

बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं पर होने वाली चर्चा अक्सर कुछ बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमती है। अगर पुलिस हमारी कानूनी व्यवस्था में आरोपियों को ले जाती तो सालों साल न्याय नहीं हो पाता। बहुचर्चित निर्भया मामले में भी एक दोषी नाबालिग होने की वजह से छूट गया और अन्य दोषियों पर 7 साल बाद भी उचित कार्रवाई का इंतज़ार है। रेप के दूसरे अनगिनत मामलों में तो जैसे न्याय का ही रेप हो रहा है। इस लिहाज से देखें तो लगता है कि तेलंगाना पुलिस ने ठीक ही किया है। ऐसा जघन्य गैंगरेप और हत्या करने वाले लोग 9 दिन तो क्या, 9 पल भी जीने के अधिकारी नहीं हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह भी लगता है कि अगर इस देश की न्याय व्यवस्था सड़ चुकी है तो क्या उस पुलिस को सड़क पर न्याय करने का अधिकार दे देना चाहिए, जो स्वयं भ्रष्ट और निकम्मी समझी जाती है? अगर पुलिस को यह अधिकार दे दें तो फिर तो वह किसी भी ताकतवर के इशारे पर या किसी से भी पैसा खाकर या तात्कालिक वाहवाही के लिए सड़क पर किसी को भी ढेर कर देगी। कहानी भी वही गढ़ेगी और न्याय भी वही करेगी। फिर रेपिस्ट तो क्या, देश के आम और बेगुनाह लोग भी कितने सुरक्षित रह जाएंगे? सोचने की बात है कि हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया अगर इतनी लचर, लाचार, दीर्घसूत्री और अन्यायी दिखती है, तो उसमें स्वयं हमारी पुलिस की भूमिका भी कम खराब और संदिग्ध नहीं है। कोई अपराधियों को चौराहे पर फांसी देने या पीटकर मार देने की मांग करता है, तो कोई महिलाओं पर कमोबेश पाबंदी की सलाह देता है। कुछ लोग नशे, फोन, कपड़े आदि पर भी दोष देते हैं। ऐसी बातें सांसदों,विधायकों, नेताओं व पुलिसकर्मियों के मुंह से भी सुनायी देती हैं और समाज में भी कही जाती हैं। ऐसा हर बार होता है, जब किसी नृशंस अपराध पर देश क्रोधित हो उठता है। 

 

 

लगातार होती घटनाओं को देखते हुए बलात्कार के विरुद्ध व्याप्त रोष एवं क्षोभ स्वाभाविक है, लेकिन जन-प्रतिनिधियों, प्रशासनिक अधिकारियों और नागरिकों को ठहरकर इस आपराधिक समस्या पर विचार करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में 32 हजार से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। ऐसे 93.4 प्रतिशत मामलों में आरोपित पहले से पीड़िता से परिचित थे। इनमें परिवार के लोग, रिश्तेदार, संगी और सहकर्मी शामिल हैं। वर्ष 2017 में बलात्कार के लंबित मामलों के निबटारे की दर 32 प्रतिशत से कुछ अधिक रही थी। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) का कहना है कि यौन हिंसा की 98.31 प्रतिशत घटनाओं की शिकायत दर्ज ही नहीं करायी जाती है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि आरोपितों को तुरंत भीड़ द्वारा सजा देने से समस्या का समाधान संभव नहीं है। पहले तो यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन हिंसा के सभी मामले कानून के संज्ञान में आएं। महिलाओं के प्रति नकारात्मक और आपराधिक सोच में बदलाव एक सामाजिक प्रक्रिया बने। न तो महिलाओं की आवाजाही पर अंकुश लगाकर या उनके भीतर अपराध भावना भर देने से समाधान हो सकता है और न ही भीड़ के न्याय से हो सकता है। किसी शिकायत पर पुलिस कैसे कार्रवाई करे, इसके भी नियम बने हुए हैं। लेकिन कई मामलों में देखा गया है कि पुलिस बेहद लचर ढंग से काम करती है।

 

 

बहुत सारे आरोपित तो सिर्फ इस लापरवाही के कारण बच निकलते हैं। इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि देश में पुलिसकर्मियों के लाखों पद खाली हैं, जिसके कारण निगरानी व जांच में बाधा पहुंचती है। समुचित प्रशिक्षण और संवेदनशीलता के अभाव में पुलिसकर्मियों का रवैया कई बार बेहद आपत्तिजनक भी होता है। ऐसा ही हाल अदालतों का है, जो जजों और कमरों की कमी की वजह से लंबित मुकदमों के बोझ तले दबी हुई हैं। विभिन्न स्तरों पर सवा लाख से अधिक बलात्कार के मामले सुनवाई पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं, जबकि इस अपराध में तुरंत सुनवाई करने का नियम है। जन-प्रतिनिधियों का काम कानून बनाना और उसे लागू करने की व्यवस्था करना है। बदले की हिंसा के लिए उकसाना असल में जवाबदेही से भागने की कोशिश है। जरूरी यह है कि लोगों की मानसिकता बदले और जांच और न्याय प्रक्रिया की खामियों को तुरंत ठीक किया जाये।

 

 

भड़ास अभी बाकी है...