दरकिनारी से बेहतर है, नाराजगी की वजह समझे मोदी सरकार...

भारत के आर्थिक जगत के पास इस समय बहुत सुर्खियां हैं। आर्थिक मंदी, लगातार गिरती विकास दर वगैरह, वगैरह। लेकिन मॉब लिंचिंग, प्रज्ञा ठाकुर और आलोचना को लेकर सरकार के रवैये से संबंधित जो सवाल उठाए गए, उनमें से कोई विशुद्द रूप से आर्थिक मसले से संबंधित नहीं रहा। जिनसे सवाल उठता है कि कहीं दबे-छुपे स्वर में और कहीं खुले स्वर में कॉरपोरेट जगत मोदी सरकार के प्रति अपना असंतोष क्यों जता रहा है? जबकि परंपरागत तौर पर भाजपा को व्यवसाय और उद्योग जगत के लिहाज से अच्छी पार्टी माना जाता है। बहुत सारे आर्थिक विश्लेषक आज भी मानते हैं कि एनडीए की बाजपेयी सरकार के दौरान देश में सबसे तेजी से आर्थिक सुधार के कार्यक्रम लागू हुए। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कॉरपोरेट जगत से हमेशा उनके लिए सराहना के स्वर ही उठे। बिजनेस जगत के ज्यादातर लोगों का मानना था कि मोदी तेजी से फैसले लेने वाले प्रधानमंत्री हैं और वे यूपीए-2 की सरकार के दौरान नीतियों में आ गई पंगुता को दूर करेंगे। पहले कार्यकाल की शुरुआत में मोदी ने इस उम्मीद को कुछ जगाया भी। इनकम टैक्स से लेकर, अन्य कर सुधारों के बारे में इस तरह की बातें की गईं कि कारोबार जगत को एक उम्मीद जगी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वे ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ में विश्वास रखते हैं।

 

 

इस बात का विश्लेषण इस रूप में निकाला गया कि शायद मोदी सरकार कारोबार को बेहतर माहौल देने और कम से कम हस्तक्षेप में विश्वास में रखती है। कॉरपोरेट जगत के प्रति मोदी सरकार के नर्म रवैये को लेकर कुछ ऐसी धारणा बनी कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार को ‘सूट-बूट की सरकार’ कहना शुरु कर दिया। लेकिन, कॉरपोरेट जगत पर मोदी सरकार का जादू बरकरार रहा। यहां तक कि 2016 में नोटबंदी के फैसले की भी कई उद्योगपतियों ने सराहना ही की। कुछ आपत्तियां भी उठीं तो नोटबंदी के क्रियान्यवन को लेकर बाकी इसे अवधारणा के तौर पर ठीक ही बताया गया। नोटबंदी और जीएसटी मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में दो बड़े आर्थिक फैसले थे। इस बात में कोई शक नहीं है कि दोनों बड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति से लिए गए थे। लेकिन ऐसे बड़े फैसलों से पहले जो विचार-विमर्श होना चाहिए था, उसकी शायद जरूरत नहीं समझी गई। नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद ही पूरे देश में लघु और मध्यम उद्योगों की कमर टूटनी शुरु हो गई, जिसकी गिरफ्त में अर्थव्यवस्था आज भी है। अर्थव्यवस्था में गिरावट के संकेत मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के तीन साल बाद ही दिखने शुरु हो गए थे, लेकिन सरकार यह मानने को तैयार नहीं थी। वहीं आर्थिक जानकार मानते हैं कि जीएसटी और नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर क्या फर्क पड़ा, यह अलग बात हो सकती है, लेकिन इन फैसलों के लेने में एक राजनीतिक आत्मविश्वास तो था ही।

 

 

लेकिन, मोदी सरकार ऐसा ही आत्मविश्वास बाकी आर्थिक मोर्चों पर दिखा रही थी ऐसा भी नहीं था। मसलन, पहली मोदी सरकार में आरबीआई के गवर्नर के तौर पर रघुराम राजन के कार्यकाल विस्तार के लिए प्रधानमंत्री मोदी और तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली दोनों राजी थे, लेकिन फिर संघ की स्वदेशी लॉबी के दबाव में उन्हें जाने दिया गया। राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर मुखर मोदी सरकार आर्थिक चुनौतियों से लगातार मुंह चुरा रही थी। जब नोटबंदी के नुकसान सामने आने लगे तो उसने बहुत आक्रामक तरीके से इसे डिजिटल और साफ-सुथरे कारोबार से जोड़ दिया। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के खत्म होने के साथ-साथ आर्थिक संकट गहराने लगा। ऊपर से चुनावी मजबूरियां भी सामने आकर खड़ी हो गई थीं। कांग्रेस उस समय रफाल विवाद को तो हवा दे ही रही थी आर्थिक मोर्चे पर अपना समाजवादी रुख भी दिखा रही थी। मोदी सरकार पर उद्योगपतियों की मित्र सरकार होने का आरोप लगाते हुए उसने यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसी योजनाओं के वादे करने शुरु कर दिए। चुनाव में जा रही मोदी सरकार इसके चलते दबाव में आई और उसे अपने अंतरिम बजट में किसानों को नकद सहायता देने वाली पीएम-किसान योजना की घोषणा करनी पड़ी। इससे पहले कॉरपोरेट और अर्थ विशेषज्ञों में यह धारणा थी कि मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर बहुत लोक-लुभावन घोषणायें नहीं करती हैं। लेकिन, पीएम-किसान ने इस धारणा को तोड़ा। लेकिन, फिर भी उस समय ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से घटती खपत के चलते पीएम-किसान पर बहुत सवाल नहीं उठे और कारोबार जगत ने भी इसे आर्थिक सुस्ती दूर करने के उपाय के तौर पर ही लिया।

 

 

भड़ास अभी बाकी है...