फिर एक बार... अरबदा में युवा !

आजादी की पूर्व संध्या पर जब जामिया के आस-पास सांप्रदायिक माहौल गर्म था और इस संस्थान के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा था, तो जामिया विश्वविद्यालय से एकजुटता दिखाते हुए महात्मा गांधी ने अपने बेटे को इस यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में भेजा था। जब लोगों ने सुझाव दिया कि इसके नाम में से इस्लामिया शब्द हटा दिया जाए तो गैर-मुस्लिमों से चंदा लेने में आसानी होगी, तो महात्मा गांधी ने कहा कि फिर मेरा जामिया से कुछ लेना-देना नहीं रहेगा। जब जामिया ने 17 नवंबर 1946 को अपनी सिल्वर जुबली मनाई तो शेख-उल-जामिया डॉ जाकिर हुसैन ने लोगों को संबोधित किया। उस समय श्रोताओं में पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, लियाकत अली खान और मोहम्मद अली जिन्ना आदि मौजूद थे। जिसमे कहा गया कि एक आदर्श और मानवीय जमीन पर एक आग जल रही है। लेकिन हम पशु संसार में मानवता को कैसे बचाएं? ये शब्द कठोर हो सकते हैं, लेकिन आज के निरंतर बिगड़ते हालात में कठोर से कठोर शब्द भी नर्म ही लगेंगे। लेकिन हम सुनते हैं कि मासूम बच्चे तक आतंक के साए में जी रहे हैं और महफूज नहीं हैं, तो उस वक्त जो महसूस होता हैं, उस गुस्से का इजहार कैसे करें, नहीं मालूम। दुनिया में आने वाला हर बच्चा अपने साथ यह पैगाम लाता है कि इंसान पर खुदा का भरोसा खत्म नहीं हुआ है, लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे देशवासियों का खुद पर ही भरोसा खत्म होता जा रहा है, इसीलिए वे इन मासूमों को खिलने से पहले ही कुचलना चाहते हैं।

 

 

इस वाकये के करीब तीन चौथाई सदी बाद, जामिया एक बार फिर खबरों में है। इस बार इस पर दिल्ली पुलिस ने हमला किया है, बिना कुलपति की इजाजत के कैंपस में घुसकर छात्रों को निशाना बनाया गया है, बहाना है आंदोलन करती भीड़ को काबू करना। पुलिस के पास निश्चित रूप से इस कार्रवाई के तर्क होंगे, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि जामिया का जन्म आजादी के आंदोलन से जुड़ा है। इस यूनिवर्सिटी के अस्तित्व में आने के बाद तब अंग्रेजी शासन के नियंत्रण वाली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र और शिक्षक जामिया मिल्लिया इस्लामिया चले आए थे। जामिया खिलाफत आंदोलन की पैदावार है, जिसे आज बहुतायत लोग मुखालफत से जोड़ लेते हैं। खिलाफत आंदोलन महात्मा गांधी की उस रणनीति का हिस्सा था जो उन्होंने आजादी के आंदोलन में हिंदू और मुसलमानों को एक साथ मिलकर अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए शुरु किया था। इसी तरह बीजेपी सरकार द्वारा संकीर्ण मंशा से लाए गए नागरिकता संशोधन कानून ने हिंदू और मुसलमानों को एकजुट किया है, ताकि आजादी और सम्मान की रक्षा की जा सके और यह इत्तिफाक है कि इस लड़ाई में इस वक्त जामिया और एएमयू एक साथ खड़े हैं। काश!  इस भावना को सरकार समझ पाती, भले ही यह उनके एक देश, एक विचार, एक आवाज और एक भावना के नारे के विरुद्ध है। इनमें से आखिर की तीन बातें मिलकर भी एक देश का विकल्प नहीं हो सकतीं, फिर भी एक राष्ट्र में हमारा विश्वास यह है कि हमारी आदर्श भूमि बहुलता में इन बाकी तीनों भावनाओं को मानती है। जो आंदोलन हो रहा है, उसका संबंध उत्पीड़न और दमन से है।

 

 

पिछली कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो इस बार तो कुलपति और पूरा विश्वविद्यालय प्रशासन मजबूती से छात्रों के साथ खड़ा है। लेकिन सरकार और उसकी एजेंसियों को यह गलतफहमी हो गई है कि यह आंदोलन सिर्फ मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के लिए किया जा रहा है। यह एक दुखद स्थिति है। इस मुद्दे पर हिंदू, सिक्ख, ईसाई, पारसी और बौद्ध के साथ मुसलमान एकजुट हैं कि धर्म के आधार पर उन्हें बांटने की नीति अपनाकर एक खास एजेंडा चलाया जा रहा है। लगता है वर्तमान सरकार को जामिया के जोश की समझ नहीं है या फिर अपनी ही आकांक्षओं में उसकी आँखें धुंधला गई हैं, यह तो समझ में आता है, लेकिन दुख की बात है कि एक तरफ तो सर्दी के माहौल में सैकड़ों लोग सड़क पर निकलकर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे, वहीं कुछ मुट्ठी भर लोग जबरदस्ती के विवाद उत्पन्न कर एकता में दरार डालने की कोशिश भी करते नजर आए। इनके अलावा क्षेत्रीय लोग भी समस्या पैदा कर रहे हैं। जबकि उनका विश्वविद्यालय से शायद उतना लेना-देना भी नहीं है। इन्हीं लोगों में से शायद कुछ ने गाड़ियों में तोड़फोड़ और आगजनी करके पुलिस को उकसाया था, लेकिन उनकी इस हरकत का खामियाजा शांतिपूर्ण तरीके से नागरिकता कानून का विरोध करते रहे छात्रों को भरना पड़ा। वहीं कुछ राजनीतिक फायदे के लिए आग में घी का काम करने वाले राजनीतिक दलों ने नागरिकता कानून पर लोगों की एकता में दरार पैदा कर दी। लेकिन तसल्ली की बात है कि इस आंदोलन में कुछ की मौजूदगी और पूरे देश के कैंपस में गूंजी एकता की आवाजें सुनी जा रही हैं। आज हमारा देश अपनी अविभाजित आत्मा को एक बार फिर से महसूस कर रहा है और हमेशा की तरह इस बार भी संघर्षों में युवा ही है। जोश और जुनून में छुट्टियों का कोई अर्थ नहीं होता और इंसाफ के लिए उठे कदम एक सप्ताह की दिक्कतों की परवाह नहीं करते। जामिया की विरासत को चुनौती दी गई है लेकिन शांतिपूर्ण और कानून के दायरे में रहते हुए असहमति की आवाज़ों को बुलंद करने की अब भी जरूरत है।

भड़ास अभी बाकी है...