आई.सी.यू. में देश की अर्थव्यवस्था...जनता चमत्कार की उम्मीद में !

देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी ने बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार की समस्या का डर जनता के मन में भर के 2014 में सत्ता हासिल की थी। तत्कालीन पिछली सरकार की नाकामियां इस तरह से भाजपा गिनाती थी, मानो देश का पूरी तरह से बंटाधार पिछली सरकारों के शासनकाल में ही हुआ है। जनता ने भाजपा, खासकर मोदी जी की बातों में आकर उनके हाथों में देश सौंप दिया। अच्छे दिन आने वाले हैं, का नारा अरसे तक कान में गूंजता रहा, फिर धीरे-धीरे उसका खोखलापन उजागर होने लगा। पांच साल उम्मीद में काट दिए, उसके बाद फिर देश मोदी जी को ही सौंपा। इस बार जनता ने अपनी जरूरतों के ऊपर राष्ट्र को तरजीह दी। पुलवामा, बालाकोट को जिस तरह भाजपा ने चुनाव में हथियार बनाया, उससे जनता को लगा कि देश की खातिर थोड़ा कष्ट सह लें, लेकिन देश सुरक्षित हाथों में रहे। मगर अफसोस कि फिर जनता ठगी के आसार देख ही रही है। देश बेरोजगारी, अंधाधुंध महंगाई और भयावह आर्थिक मंदी से जूझता ही जा रहा है और मोदी सरकार एनआरसी, सीएए जैसे मुद्दे से मुश्किलें और बढ़ा रही है। वहीं अर्थव्यवस्था को लेकर एक के बाद एक बुरी खबरें देश में आ रही हैं। आरबीआई, एडीबी, विश्व बैंक, मूडीज, फिच जैसी रेटिंग एजेंसीज़ आर्थिक मंदी पर सरकार को चेतावनी दिए जा रही हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही। मानो उसे जनता की तकलीफ न देखनी है, न सुननी है।

 

 

आर्थिक मंदी की डराने वाली खबरों के बीच बैंकों की धोखाधड़ी के संबंध में आयी, जिसमें खुलासा हुआ है कि भारत के बैंकों को साल 2018-19 में फर्जीवाड़े के जरिए 71,543 करोड़ रुपये का तगड़ा चूना लगा है। 2017-18 में 41,167 करोड़ रुपयों की धोखाधड़ी हुई थी। यानी पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले यह रकम करीब 74 फीसदी ज्यादा है। निजी बैंकों की अपेक्षा सरकारी बैंकों में फर्जीवाड़ा अधिक हुआ है। गरीब और निम्न- मध्यम वर्ग के लोगों का खाता अधिकतर सरकारी बैंकों में ही है। इसका एक अर्थ यह है कि गरीब जनता को पिछले साल के मुकाबले इस साल 74 प्रतिशत अधिक धोखा सहना पड़ा। क्या मोदी जी और उनकी वित्तमंत्री इसके लिए भी नेहरू जी या कांग्रेसी शासन को जिम्मेदार ठहराएंगे या अपनी कोई जिम्मेदारी तय करेंगे। दूध, सब्जी, अनाज-दाल आदि की महंगाई पर तो रो-रोकर जनता के आंसू सूख गए। उसने आधे पेट खाने को अपनी नियति मान लिया है। डेढ़ सौ रुपए किलो प्याज खरीदने की विलासिता गरीब जनता कहां से कर सकती है? पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें रोजमर्रा के जीवन को महंगा बना रही हैं। अब खबर है कि रेलवे के घाटे की भरपाई के लिए किराए में पांच पैसे प्रति किलोमीटर से लेकर 40 पैसे प्रति किलोमीटर तक का इजाफा हो सकता है। इसका मतलब होगा कि बढ़ोतरी 10 से 20 फीसदी तक हो सकती है। जाहिर है यह भार भी जनता की जेब पर ही आएगा। अपनी नाकामियों का ठीकरा मोदी सरकार पिछली सरकारों पर फोड़ती है और हर्जाना जनता से वसूल करती है। बस खुद केवल देश पर हुकुम चलाना चाहती है।

 

 

समझदार लोग सरकार के इस खेल को खूब समझ रहे हैं और आवाज भी उठा रहे हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में तीन साल तक मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर एक बार फिर चेतावनी दी है। कुछ दिनों पहले उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को आईसीयू में बताया था और अब उन्होंने कहा है कि भारत किसी सामान्य आर्थिक संकट की चपेट में नहीं है बल्कि स्थिति बहुत गंभीर है। निवेश से लेकर आयात-निर्यात तक हर जगह मंदी है जिसके चलते लोगों की आय भी घटी है और सरकार को मिलने वाला राजस्व भी। अरविंद सुब्रमण्यम विश्व विख्यात अर्थशास्त्री है, जो विचार उनके हैं, ऐसे ही विचार अभिजीत बनर्जी, प्रणव मुखर्जी, डॉ. मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम जैसे अर्थशास्त्री भी व्यक्त कर चुके हैं। अरविंद सुब्रमण्यम के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय ट्विन बैलेंस शीट (टीबीएस) की दूसरी लहर का सामना कर रही है जिसके चलते इसमें असाधारण सुस्ती आ गई है। टीबीएस की समस्या तब पैदा होती है जब निजी कंपनियों द्वारा लिया गया विशाल कर्ज एनपीए में तब्दील होने लगता है। पहली बार यह समस्या आई थी, 2004 से 2011 के बीच जब बैंकों ने स्टील, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे से जुड़ी कंपनियों को कर्ज दिए और यह पैसा डूब गया। अब टीबीएस-2 का दौर नोटबंदी के बाद आया है। इस दौरान बैंकों में खूब पैसा जमा हुआ और बैंकों ने इसका बड़ा हिस्सा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को उधार दिया। इन कंपनियों ने आगे यह पैसा रियल एस्टेट सेक्टर में लगाया, जो अब मंदी की चपेट में है। आज देश के आठ बड़े शहरों में कम से कम दस लाख मकान या प्लाट ऐसे हैं, जिनका कोई खरीदार नहीं मिल रहा। यानी बैंकों का ऋण एक बार फिर डूबने की कगार पर है, क्योंकि मकान बिकेंगे नहीं तो कंपनियां कर्ज कहां से चुकाएंगी? अर्थव्यवस्था के पेचीदों और जनता की तकलीफों को समझने के लिए संवेदनशीलता और अथक प्रयास की जरूरत है, फिलहाल दोनों की कमी वर्तमान  सरकार में किसी से छुपी नही है, ये तो आने वाला वक़्त और इस सरकार के निर्णय ही तय करेगें कि देश की अर्थव्यवस्था आई.सी.यू. से बाहर आयेगी या वेंटीलेटर पर चली जाएगी !     

 

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