नाकामयाब डेमोक्रेसी की तस्वीर है ये जन आन्दोलन...

सीएए/एनआर/सीएनपीआर के खिलाफ देश भर में उठे रहे जनविरोध के ज्वार से बौखलाए मोदी की संसद और जनतंत्र की दुहाई की विडंबना पर, अगर यह मामला इतना खतरनाक नहीं होता, तो हँसा भी जा सकता था। नागरिकता में सांप्रदायिक छन्नी जोड़ने और इस तरह छांटकर मुसलमानों को अलग करने की मोदी सरकार की खतरनाक चाल के लगभग लगातार जारी विरोध के बीच, एक आयोजन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह मोदी पर हमला करने से आगे जाकर अब, देश की संसद पर ही हमला कर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का तर्क बिल्कुल सीधा था, जो वास्तव में संघ परिवार द्वारा पहले कश्मीर के खिलाफ मोदी-शाह जोड़ी के संविधानविरोधी हमले के पक्ष में दिया जा रहा था और अब भारतीय नागरिकता की परिभाषा के खिलाफ उनके ऐसे ही संविधानविरोधी हमले के पक्ष में दिया जा रहा है। जब संसद ने विधेयक पारित कर दिया है और राष्ट्रपति ने उस पर मोहर भी लगा दी है, उसके बाद सरकार के फैसले का विरोध करना क्या संसद और जनतंत्र का ही विरोध नहीं है? कहने की जरूरत नहीं है कि जैसा मोदी राज में अब चलन ही हो गया है, प्रधानमंत्री से लगाकर नीचे तक, संघ के लाखों मुंहों से इसके साथ फौरन यह और जोड़ दिया जाता है कि मोदी राज यानी 'भारत' की यही आलोचना तो पाकिस्तान भी कर रहा है! मोदीशाही का विरोध यानी भारत का विरोध और पाकिस्तान का समर्थन! लेकिन, संघ परिवार के दुर्भाग्य से, जनता के लगातार बढ़ते हिस्सों को यह साफ दिखाई दे रहा है कि कम से कम सीएए/एनआरसी के पक्ष में मोदीशाही की सारी दलीलें खालिस झूठ पर खड़ी हुई हैं। इनमें सीएए-एनआरसी की जोड़ी के बचाव की उसकी सारी दलीलें तो शामिल हैं ही, इसके साथ ही उसकी यह दलील भी शामिल है कि उसके इस संविधानविरोधी सांप्रदायिक खेल का विरोध, जनतंत्रविरोधी है, जबकि उसका यह सांप्रदायिक खेल जनतांत्रिक है। 2019 के आम चुनाव में किस तरह से और किन हालात में मोदीराज की सत्ता में वापसी हुई है उसे अगर हम अलग भी रख दें तब भी, क्या चुनावी जीत से मोदी-2 को कुछ भी करने की इजाजत मिल जाती है? कम से कम भारतीय संविधान के रहते हुए नहीं। लचर प्रणाली और चुनावी व्यवस्था का ही प्रताप है कि देश के पैमाने पर करीब साठ फीसद वोट अपने खिलाफ पड़ने के बावजूद, नरेंद्र मोदी को 'प्रचंड बहुमत' के साथ सरकार बनाने/ चलाने का मौका मिला है।

 

 

भारतीय संविधान पर आधारित जो व्यवस्था, मतदाताओं के अल्पमत के समर्थन के बावजूद, सरकार चलाने के लिए संसद में बहुमत का दावा करने का मौका देती है, वही व्यवस्था इस सरकार की शक्तियों पर सीमाएं भी लगाती है। इनमें सबसे बुनियादी सीमा तो यही है कि सरकार ऐसा कुछ नहीं कर सकती है, जो उस संविधान का ही उल्लंघन करता हो, जिसके तहत सरकार बनी है। बेशक, भारतीय संविधान भी कोई अचल इमारत नहीं है और साधारण बहुमत से कहीं कड़ी शर्तों पर खुद संविधान में संशोधन की भी व्यवस्था रखी गयी है। लेकिन, खासतौर पर इमरजेंसी के बाद के दौर में आए सुप्रीम कोर्ट के एक के बाद एक अनेक निर्णयों में, यह बिल्कुल स्पष्ट किया जा चुका है कि संविधान का बुनियादी ढांचा, खुद संविधान संशोधन के उक्त प्रावधान के दायरे से भी बाहर है यानी उसे बदला नहीं जा सकता है। धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र इस बुनियादी ढांचे का ही हिस्सा है। सीएए का देश भर में विरोध ठीक इसी आधार पर हो रहा है कि यह नागरिकता की परिभाषा में, जो भारतीय राज्य की इमारत का आधार है, सांप्रदायिक विभाजन घुसाने की कोशिश है, जो कि हमारे जनतंत्र के धर्मनिरपेक्ष आधार को ही पलटने के भाजपा समेत संघ परिवार के अभियान का हिस्सा है। जाहिर है कि जम्मू-कश्मीर से संबंधित धारा-370 को खत्म करने की अपनी करतूत की ही तरह, मोदी-शाह जोड़ी ने भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष आधार में पलीता लगाने के लिए भी, संविधान में संशोधन को गैर-जरूरी बनाने की कानूनी चालबाजी का सहारा लिया है। और कश्मीर प्रकरण की ही तरह, सीएए प्रकरण में भी इस सरकार के सरासर असंवैधानिक कदमों के खिलाफ हस्तक्षेप करने में भी कोताही बरत कर, सुप्रीम कोर्ट ने मोदीशाही को इसका दावा करने का मौका दे दिया है कि उसका यह प्रत्यक्षत: असंवैधानिक फैसला भी, जनतांत्रिक है। लेकिन, जनतंत्र में अंतिम निर्णय तो जनता का ही होता है। आखिरकार, जनतंत्र में तो जनता ही संप्रभु होती है। कम से कम भारत में, जिसने ब्रिटिश गुलामी से सौ साल से लंबे स्वतंत्रता संघर्ष के बाद, सात दशक पहले ही आजादी हासिल की थी, यह बताने की किसी को जरूरत नहीं है कि कोई भी मौजूदा शासन, जनता की इस संप्रभुता की सीमाएं तय नहीं कर सकता है। हैरानी की बात नहीं है कि गांधी के जन्म की डेढ़ सौवीं सालगिरह पर, देश की जनता जितने बड़े पैमाने पर मौजूदा शासन के असंवैधानिक निर्णय के खिलाफ अपनी इस संप्रभुता का दावा कर रही है, उसका दूसरा उदाहरण आजादी के बाद के तमाम वर्षों में शायद ही मिलेगा। 

 

 

हैरानी की बात नहीं है कि युवा और महिलाएं, इस आंदोलन में आगे-आगे हैं, जबकि राजनीतिक पार्टियां उनके पीछे-पीछे चल रही हैं। वास्तव में हम आज जनता के आंदोलन में तिरंगे जैसे राष्ट्ररीय प्रतीक और संविधान की तथा विशेष रूप से उसकी प्रस्तावना की ही वापसी नहीं देख रहे हैं बल्कि सत्याग्रह तथा खासतौर पर उसके असहयोग के रूप की भी वापसी देख रहे हैं और नये असहयोग आंदोलन का केंद्रीय नारा है—'हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।' अब तक देश भर में लाखों लोग 'कागज नहीं दिखाएंगे' के शपथ पत्र पर दस्तखत भी कर चुके हैं। क्या मोदीशाही, निर्णय लेकर कागज न दिखाने के लिए, दस-बीस हजार लोगों को भी डिटेंशन सेंटरों में भेजने की हिम्मत कर पाएगी?वहीं दूसरी ओर, भाजपा-शासित राज्यों में और खासतौर पर उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, असम तथा दिल्ली में भी, जिसकी कानून व व्यवस्था सीधे केंद्र सरकार के हाथों में है, शासन की सारी बर्बरता भी, जिसमें हजारों लोगों का जेलों में डाला जाना, जनता के इस ज्वार को रोक नहीं पाई है बल्कि उसका दायरा बढ़ता ही गया है। इसने भाजपा शासन की इस लहर को हिंसा के रास्ते पर धकेलकर कुचलने की कोशिशों को भी विफल कर दिया है। सारी दुनिया देख रही है कि जो भी हिंसा हुई है, भाजपा-शासित राज्यों में ही हुई है, जो प्रशासन की विफलताओं से लेकर, उसके जनता की आवाज दबाने के लिए बर्बर पुलिसिया हिंसा का सहारा लेने तक का ही नतीजा है, जबकि केरल, बंगाल, तेलंगाना आदि ही नहीं, ओडिशा, तमिलनाडु, महाराष्ट्रर, पंजाब आदि में भी अभूतपूर्व रूप से विराट प्रदर्शन हुए हैं, जो पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहे हैं। इस प्रबल जन-विरोध के सामने अपने बचाव के लिए मोदीशाही को सिर्फ झूठ का सहारा है। अपने हिटलरशाही के सच्चे शिष्य होने का सबूत पेश करते हुए, मौजूदा शासन सिर्फ झूठ का नहीं बल्कि बड़े-बड़े और सफेद झूठ बोलने का सहारा ले रहा है। जनतंत्र, पारदर्शी तरीके से जनता की राय से चलने वाली व्यवस्था का नाम है, न कि उसकी आंखों में धूल झोंककर फैसले थोपने का नाम। इसीलिए आज देश की जनता  नाकामयाब डैमोक्रेसी तस्वीर सड़कों पर उतर कर जन आन्दोलन के रूप में पेश कर रही है।


भड़ास अभी बाकी है...