इस दोहरे व्यवहार की आखिर वजह क्या है !

देश में इस वक्त गुंडाराज चल रहा है या कानून का राज? इस सवाल का जवाब अगर अब नहीं मिला, तो हिंदुस्तान का न वर्तमान बचेगा, न भविष्य। इसके बाद आने वाली पीढ़ियों को भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति, विविधता में सौंदर्य के दर्शन, सारे धर्मों के लोगों का एक साथ के मिलजुल कर रहना, ऐसी तमाम खासियतें दूसरे ग्रह की बातें लगेंगी। इन विशेषताओं में से बहुत कुछ हम खो ही चुके हैं और जो बची हैं, उन्हें अपनी ही मूर्खता, अदूरदर्शिता, कायराना चुप्पी के कारण खोते जा रहे हैं। इसलिए देश की एक बड़ी आबादी को, जिसमें सुविधाभोगी उच्चजाति के लोग बहुतायत में हैं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कड़कड़ाती ठंड में महिलाएं, बच्चे, नौजवान, बूढ़े सरकार द्वारा जबरन थोपे जा रहे कानून के प्रति आक्रोशित हैं और सरकार इसे पुलिसिया दमन से रोकने की कोशिश कर रही है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर एकाध जगह, एकाध धार्मिक समुदाय का विरोध होता तो यह माना जा सकता था कि वे केवल अपने हितों के लिए सोच रहे हैं। लेकिन इस वक्त पूरे देश में नागरिक समूह स्वत:स्फूर्त विरोध के लिए घरों से बाहर निकल रहे हैं। देश में अगर लोकतांत्रिक सोच वाली सरकार होती, कानून का राज होता तो इस विरोध का संज्ञान लिया जाता। लेकिन अभी तो धमकी भरे जवाब मिल रहे हैं। एक जनजागरुकता के लिए रैली करने पहुंचे गृहमंत्री खुलेआम कहा कि जिसको विरोध करना हो करे, मगर सीएए वापस नहीं होने वाला। 

 

 

क्या इस तरह की भाषा लोकतांत्रिक नेता की होनी चाहिए, इस पर देश विचार करे। सीएए का समर्थन करने वाली जनता भी विचार करे कि अगर कभी उसे किसी मसले पर विरोध करना पड़े और सरकार उसे ऐसे ही दबाए, तो क्या तब भी वह सरकार को सही कहेगी? लोकतंत्र में बहुमत का महत्व होता है, लेकिन बहुमत ही सब कुछ नहीं होता, अल्पमत को भी उतना ही सम्मान दिया जाता है। मगर मोदी-शाह युग में भारत का अल्पमत इस सम्मान से वंचित होता जा रहा है, यह सबसे खतरनाक बात है। सीएए, एनआरसी पर सरकार के कई झूठ सामने आ चुके हैं, मगर फिर भी बड़ी निर्लज्जता से ये सरकार इसे लागू कराने की धमकी देश को दे रही है। ये भी कहा गया कि जिसमें भी हिम्मत है वह इस पर चर्चा करने के लिये सार्वजनिक मंच ढूंढ ले। हम चर्चा करने के लिये तैयार हैं। मगर कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल उन्हें बहस की चुनौती देते हैं तो कोई जवाब मोदी-शाह की ओर से नहीं आता। श्री शाह सीएए पर विरोध को विपक्षी दलों की वोटबैंक की राजनीति करार दे रहे हैं। लेकिन अब उन्हें क्रोनोलाजी समझने की जरूरत है। आपने पांच साल देश पर शासन किया, फिर चुनाव हुआ, जनता ने दोबारा आपको ही देश चलाने की जिम्मेदारी दी, यानी विपक्षी दलों से अधिक भरोसा आप पर जतलाया। अगर विपक्ष के कहने पर इस देश की जनता चलती, तो आज आप सत्ता में नहीं होते, न ही देश इस हाल में पहुंचता। एनडीए में भाजपा के सहयोगी दलों को भी अब संघ के एजेंडे को समझ लेना चाहिए। शिरोमणि अकाली दल सीएए के समर्थन में नहीं है, इसी वजह से वह दिल्ली चुनाव में भाजपा का साथ नहीं दे रहा है। वहीं नीतीश कुमार एनआरसी लागू न करने की बात कर रहे हैं, लेकिन सीएए पर कुछ नहीं बोल रहे, न ही भाजपा का साथ देने पर अपना रुख स्पष्ट कर रहे हैं। इस तरह का दुचित्तापन राजनीति के लिए तो फायदेमंद हो सकता है, देश के लिए नहीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो धरने और आंदोलनों की सीढ़ी चढ़कर सत्ता तक पहुंचे, लेकिन शाहीन बाग में बैठी महिलाओं, प्रदर्शनकारियों तक जाने का रास्ता उन्हें अब तक नहीं मिला है। 

 

 

देश की कानून व्यवस्था भी इसी तरह दोहरे मानकों पर चल रही है। लखनऊ में धारा 144 लागू होने के कारण सीएए के प्रदर्शन में उतरी सैकड़ों महिलाओं पर निषेधाज्ञा के उल्लंघन के आरोप में मुकदमा दर्ज किया गया है, लेकिन उसी लखनऊ में केन्द्रीय गृहमंत्री को सीएए के समर्थन में रैली करने और भीड़ जुटाने की इजाजत मिल जाती है। क्या विरोधियों की भीड़ और सत्तासमर्थकों की भीड़ के लिए कानून अलग-अलग होते हैं? ऐसा तो केवल फासीवाद में ही होता है।

 

भड़ास अभी बाकी है...