कहीं कमजोरी का खामियाज़ा तो नहीं दिल्ली हिंसा...

पिछले लंबे समय से दिल्ली में जो कुछ भी हो रहा है वह दिल्ली पुलिस की पेशेवराना छवि को धूमिल कर रहा है। दंगों से राजनीतिक जमात का कुछ नहीं बिगड़ता है। वे तो साम्प्रदायिक एजेंडे पर चलते ही रहते हैं, वे ऐसे एजेंडों के पक्ष में रहें या विपक्ष में दोनों ही स्थितियों का लाभ उठाना उन्हें बखूबी आता है। लेकिन दंगा चाहे 1984 का हो चाहें 1992 के देशव्यापी दंगे हों या फिर 2002 के गुजरात दंगे ही क्यों ना हों सबकी पड़ताल में एक चीज बड़ी शिद्दत से उभर कर आती है कि उन दंगों में पुलिस की क्या भूमिका रही है। जैसे सभी दंगों की जांच होती है, इन दंगों की भी होगी। न्यायिक जांच हो या कोई गैर सरकारी संगठन, इन दंगों की तह में जाने की कोशिश करे, पर सच तो उभर कर आएगा ही। आज के संचार समृद्ध युग में हर खबर हमारी मुट्ठी में है। दिल्ली में माहौल बिगाड़ने का एक योजनाबद्ध प्रयास किया गया और यह काफी समय से किया जा रहा है। पुलवामा हमले में प्रयुक्त आरडीएक्स कहां से आया, यह आज तक नहीं पता लगा। बल्कि  इन सबके बारे में सवाल उठाना देशद्रोह का नया समीकरण हो जाता है। दरअसल अब सरकार और उसके समर्थकों ने देशद्रोह की परिभाषा बदल दी है। देश सिमट कर सरकार और सरकार सिमट कर एक आदमी के रूप में आ गयी है।

 

 

इसी गणितीय सूत्र के आधार पर एक व्यक्ति की निंदा और आलोचना, सरकार की निंदा और आलोचना और सरकार के प्रति द्रोह, देश के प्रति द्रोह हो गया है। इसीलिए किसी कानून का विरोध करना, शांतिपूर्ण जनसभाएं करना, कविताएं और लोगों को रचनात्मक क्रियाकलापों से जागरूक करना जिसमें सरकार की आलोचना होती हो वह देशद्रोह हो गया है। कानून पर सवाल उठाना देशद्रोह है। फ़र्ज़ी डिग्री और फर्जी हलफनामें दिए हुए हुक्मरानों की सत्यनिष्ठा पर चर्चा करना देशद्रोह है। रोज़ी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करना देशद्रोह है। सरकारी कंपनियों की बेबाक बिक्री पर सवाल उठाना देशद्रोह है। दिसंबर 2019जब से नागरिकता कानून बना है तब से ही दिल्ली में इस कानून का प्रतिरोध शुरू हुआ है। असम और नॉर्थ ईस्ट से उठी प्रतिरोध की लहर तत्काल देशव्यापी हो गयी। कानून संवैधानिक है या असंवैधानिक, इस पर बहस बाद में होगी, पर केवल रक्षकों के प्रोफेशनल दक्षता का मूल्यांकन करें तो उसकी भूमिका बेहद निराशाजनक रही है। जेएनयू में नकाबपोश गुंडों द्वारा भड़कायी गयी हिंसा पर रक्षकों की शर्मनाक चुप्पी हो, या जामिया यूनिवर्सिटी में लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों पर किया गया अनावश्यक बल प्रयोग हो या किसी भड़काऊ भाषण के बाद रक्षकों की चुप्पी हो, इस सब में कुछ तत्वों की भूमिका बेहद निराशाजनक और निंदनीय रही है। लेकिन ऐसा क्यों है, यह आत्ममंथन और अन्तरावलोकन इन बड़े अफसरों को करना है न कि कनिष्ठ अफसरों को। यह अक्षमता जानबूझकर कर ओढ़ी गयी है। जब कानून व्यवस्था को राजनीतिक एजेंडे के अनुसार निर्देशित होने दिया जाएगा तो यही अधोगति होती है। 

 

 

एक ओर जहाँ विश्व का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका जिसका राष्ट्रपति अपने पूरे परिवार के साथ हमारे देश में पर्यटन और वैश्विक नीति में सहयोग करने आया है, ऐसे में इस चुप्पी और दंगे का असर सीधे हमारे प्रधानमंत्री की छवि पर पड़ रहा है, जिन्होंने अपनी छवि बनाने के लिये पूरी दुनिया नाप रखी है और जिसकी ख्यति का दुनियाभर में डंका बज रहा है। ऐसे में जब दुनियाभर में दिल्ली की खबरों को लोग उत्कंठा और प्राथमिकता से पढ़ रहे हैं तो देश की राजधानी के प्रति, हमारी शासन क्षमता के प्रति, हमारी प्राथमिकताओं के प्रति और हम भारतीयों के प्रति वे क्या धारणा बना रहे होंगे, इसका अनुमान आसानी से लगाया ही जा सकता है।

भड़ास अभी बाकी है...