इस लाचार और बेबस दास्तां का ज़िक्र ही कहां !

केंद्र सरकार द्वारा लॉकडाउन को 14 मई तक बढ़ाये जाने की घोषणा से देश के हजारों प्रवासी मजदूरों के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ गईं है। दिल पहले से अधिक घबराने लगा है कि अब वे किस तरह जिएंगे, क्या खाएंगे, कहां रहेंगे। कहने को तो मोदीजी ने देश को सात सुझाव दिए थे क्या अभी तो है हीं ! सब कुछ बंद रहने की स्थिति में क्या-क्या करें। इनमें एक बिंदु अपने मातहत काम करने वालों को न निकालने की अपील भी थी। मोदीजी की अपील पर लोग बालकनी में आकर ताली बजा सकते हैं, दिए जला सकते हैं। अगर वे कहें कि सबको 10 मिनट तक एक पैर पर खड़ा रहना है, तो शायद इसके लिए सभी तैयार भी हो जाएं ! इसमें अपनी जेब से कुछ नहीं जाता और टाइमपास करने के लिए एक शगल मिल जाता है। लेकिन जब अपने कर्मचारियों को बैठे-बिठाए, बिना काम के वेतन देने की बात हो, तो कितनी लोग उनकी अपील का मान रखते हैं, इसका परीक्षण भी उन्हें करा लेना चाहिए। शायद बालकनी से उतर कर जमीन की हकीकत से मोदीजी का सामना हो जाए। वैसे इतने दिनों में अगर उन्होंने खबरों का विश्लेषण किया हो, तो उन्हें पता चल ही गया होगा कि इस देश की बड़ी आबादी के पास बालकनी तो दूर, रहने के लिए एक कमरा भी नहीं है। सड़क किनारे तम्बू-कनाद लगा कर या घास-फूस की झोपड़ी बनाकर रहने वाले या निर्माणाधीन भवनों के पास अस्थायी ठिकाने बनाकर रहने वाले बहुत सारे लोग हैं, जिनके पास न राशन कार्ड है, न आधार का अता-पता। ये निराधार लोग भी इसी भारत के हैं और उनका जीवनयापन रोज कमाने-खाने से होता है। इन लोगों की मेहनत के दम पर लाखों का मुनाफा कमाने वालों में शायद ही इतनी दरियादिली हो कि वे उन्हें बिना वेतन के रोज की मजदूरी दें, उनके रहने का इंतजाम करें या उनके मकान मालिकों तक किराया पहुंचा दें, ताकि उन्हें भी घर पर रहने की इस मौजूदा जरूरत से वंचित न रहना पड़ा। अपने नियोक्ताओं और सरकार, प्रशासन की तंगदिली के कारण ही हजारों मजदूरों को जान जोखिम में डालकर घर जाने की जल्दी है। इसके एक नहीं तमाम ऐसे उदाहरण है, जिनसे ये देखा और समझा जा सकता है कि ये कल मजदूर दिवस नहीं बल्कि मजबूर दिवस मना रहे थे। इन तस्वीरों ने संवेदनशील समाज को विचलित किया था, लेकिन हमारी सरकार न जाने किस मिट्टी की बनी है,कि उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इस मसले पर खूब राजनीति हुई, तब जाकर घोषणाएं की गईं कि कहीं खाने का इंतजाम है, कहीं रुकने का। लेकिन ये घोषणाएं भी नाकाफी है और सरकार की अदूरदर्शिता को साबित करने वाली भी। तभी और अभी भी सैकड़ों मजदूरों ने घर जाने की आवाज उठाई हुई है, लेकिन प्रशासनिक सख्ती के कारण वह ऐसा कर पाने में मजबूर है।

 

 

बीते दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था। जिसमे प्रवासियों के जूते-चप्पल का एक ढेर लगा हुआ था जो कि भगदड़ के कारण रह गए थे जाहिर है कि ऐसी तस्वीरे और विडियो समाज के एक तबके ने देखी होगी, तो अधिकतर लोगों की यही प्रतिक्रिया होगी कि ये लोग कुछ समझते ही नहीं हैं, इनके कारण पूरे देश में कोरोना फैलने का खतरा है, इन्हें रत्ती भर भी अक्ल और तमीज़ नहीं है वगैरह...वगैरह... लेकिन अगर ऐसे सवाल किसी के मन में उठें तो उसे साथ ही साथ कुछ और सवाल भी उठाने चाहिए, जैसे सरकार इन लोगों को आखिर इंसान कब समझेगी। जब विदेशों में फंसे भारतीयों को लाने के लिए हवाईजहाज भेज सकती है, तो इनके लिए खास बसों का इंतजाम क्यों नहीं किया जा सकता है या इनके हाथ में तुरंत नगदी पहुंचाने की व्यवस्था क्यों नहीं होती, ताकि कुछ दिनों तक इन्हें राहत मिल सके। बीते दिनों हमारे गृहमंत्री अमित शाह जी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से कहा है कि इस तरह की घटनाओं से कोरोना वायरस के खिलाफ भारत की लड़ाई कमजोर होती है और प्रशासन को ऐसी घटनाओं से बचने के लिए सतर्क रहना होगा। सवाल ये है कि कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई मजबूत थी ही कब। सरकार ने तो शुरु से इसमें अपनी कमजोर प्रशासनिक क्षमता दिखलाई इसलिए पहले 21 दिनों के लॉकडाउन के बावजूद भी मामले दोगुनी-तिगुनी रफ़्तार से बढ़ते गए, ऐसा नहीं है कि प्रशाशन ने ध्यान नहीं दिया लेकिन उसके हाथ भी तो आदेशों के आगे बंधे ही रहते है, जैसा आदेश किया जायेगा वैसी कार्यप्रणाली बनेगी और सभी उसका पालन करेंगे। वहीं शुरु से टेस्टिंग पर जोर नहीं दिया, कई दिनों तक यही तय नहीं हुआ था कि सरकारी लैब के अलावा निजी लैब इसकी जांच करेंगे या नहीं, फिर जांच की रकम भी इतनी रखी कि गरीब आदमी के लिए उसका वहन करना मुश्किल हो जाए। देश में मास्क, ग्लव्स की अचानक कमी हो गई और अब उसमें भी जुगाड़ का इंतजाम कर लिया गया है। वैसे मोदीजी अगर गमछा नहीं भी पहनते, तब भी लाखों भारतीयों के पास गमछे या रूमाल के अलावा मुंह ढंकने का कोई साधन नहीं है और वे उनके प्रचार के बिना भी इन्हीं का इस्तेमाल करते। कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई की बहुत सी कमजोरियां एक-एक कर उजागर हो ही रही हैं, जिनके बारे में विपक्ष भी सवाल कर रहा है औऱ साथ ही कई सुझाव भी दे रहा है। जिनमे राहुल गांधी शुरु से आर्थिक संकट की ओर ध्यान दिलाते आए हैं। अभिजित बनर्जी और रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्री सुझाव दे रहे हैं, जिस पर सरकार को अपना अहं को किनारे रखकर सोचना चाहिए। 

 

 

लॉकडाउन को 14 दिन और आगे बढ़ाये जाने से निराशा जरूर मिली है लेकिन सरकार की ग्रीन, ऑरेंज और रेड जोन प्रणाली बनाये जाने से एक राहत ये है कि सभी को एक जैसा नहीं हांका जायेगा। अच्छी बात हैये है कि खतरे से बाहर के कुछ क्षेत्रों में काम शुरु हो जायेगा, इससे बहुतों की आजीविका का संकट चला जायेगा और देश की अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे संभालने में मदद मिलेगी, लेकिन हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि जो क्षेत्र ग्रीन जोन की श्रेणी में है वे अतिविश्वास का शिकार न हो, क्योंकि उनकी ये लापरवाही सरकार और प्रशाशन के भरसक प्रयत्नों और उनकी अतुल्य कार्यशीलता को बेज़ार कर देगा और जिसका खामियाजा उन्हें चुकाना पड़ जायेगा जिन्होंने पूरी शिद्दत के साथ अपने घर में रहकर कहीं न कहीं अपनी आर्थिक व्यवस्था को लचर और बेहाल करते हुए लॉकडाउन का पालन किया है।


लॉकडाउन के साथ भड़ास अभी बाकी है...