जनाब ये सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का वक़्त नहीं !

जहां तक हो सका वह पार्टी सोयी हुई थी, उसके भाग्यविधाता भी सोये हुए थे, लेकिन उनके सपने में अक्सर अरब की क्रांति आती। इसलिए जब उनींदी अवस्था में बीच-बीच में आंखें खुलतीं तो सपने की उसी क्रांति का अक्स जैसे सामने आ खड़ा होता। शाहीन बाग के क्षितिज पर वैसा ही कुछ दिखा था, लेकिन जब आंखें खुली तो वैसा कुछ नहीं था। ओहह, तो सब सपना था ! नतीजा, फिर चादर तान ली। अब फिर वह अधखुली आंखों में क्रांति के उसी मनमोहक नजारे के साथ जगी है और सियासत की जमीन पर पैर जमाकर खड़ी होने की कोशिश कर रही है। एक तरफ जहां चाइनीज वायरस के कारण दुनिया की धुरी जैसे हिल गई है, वहीं कुछ लोगों के लिए यह सत्ता-संसाधन हासिल करने का खेल सा बन गया है। अमेरिका में डेमोक्रेट की छटपटाहट या भारत में पिछली पार्टी की बेचैनी को इसी संदर्भ में समझना चाहिए। दोनों जगह राजनीतिक आकांक्षाएं मानवता की पीड़ा से अलग हैं। यह बताता है कि स्थापित लोकतंत्र में ऐसे भी दल हैं जो जमीन से कटे हुए पर अंधहितों से बंधे हुए हैं। भारत में विविधता को विभाजक रेखाओं की तरह पोसने वाली मानसिकता में इस समय सबसे ज्यादा उभार दिखता है। खासकर, 13 अप्रैल से पिछले नेतृत्वों के नए तेवर में। पिछली पार्टी लंबे समय से सो रही थी। वह 13 अप्रैल को जागती है, जागते ही जो अंगड़ाई लेती है, उससे दिख जाता है कि वह तो लोगों को बांटने, उनका गुस्सा भड़काने और व्यवस्था के प्रति इस तरह पनपे उनके आक्रोश को अपने पक्ष में भुनाने की तरकीबों में जुटी है। रोज पिछले नेतृत्वों के अग्रणी नेता सामने आ रहे हैं। लेकिन उनके पास समस्या का समाधान नहीं है। मैडम आयी तो उन्होंने कहा कि संचार माध्यमों के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। दिव्यपुरुष आए तो उन्होंने कहा कि ये अब आपके खाने के चावल से सैनेटाइजर बनाएंगे। ये धूर्तता वाली, लोगों को उकसाने वाली बात तो है ही, अपूर्ण भी है। वैसे इसे समझने की भी जरुरत है, अगर वे विभिन्न संचार माध्यमों पर इसे चलाते हैं तो यह भी देखना चाहिए कि इस विपत्ति में इन्होने कितनी मानवापूर्ति कर दी थी, लोगों को गुमराह कर रहे थे। इतना ही नहीं यहां तक कि कहा गया कि आपके खाने के चावल से ये लोग अमीरों के हाथ धोने के लिए सैनेटाइजर बनाएंगे, तो यह भी मानवापूर्ति के विरुद्ध ही था क्योंकि हमारे देश में खाद्यान से गोदाम भरे हुए हैं। साल-डेढ़ साल का अनाज हमारे पास है और फिर बचत की क्यों जाती है,आपातकाल में काम आने के लिए। क्या यह समय संकट का नहीं? क्या सैनेटाइजर पर सिर्फ अमीरों का हक है? क्या गरीबों की जान बचाने के लिए उन्हें भी सैनेटाइजर नहीं मिलना चाहिए? अब गरीबों की थाली के चावल से इथेनॉल तो फैक्टरी में आलू बनाने वाले विशेषजन ही तैयार कर सकते हैं।

 

 

संगठन का रोआं चीन के लिए कैसे हिलता है, वह कैसे चीन के लिए पेशबंदी करता है, यह दुनिया ने मान भी लिया, देख भी लिया है। हमने भी डोकलाम के समय चीन के लिए विशेषजन की धड़कनों को बढ़ते देखा है। जब डोकलाम में दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने थीं, विशेषजन छिपते-छिपाते चीन के राजदूत से मिलते हैं। क्या खिचड़ी पकती है, वही जानें लेकिन जब बात खुलती है तो पहले तो पिछले नेतृत्व इसे खारिज कर देते है और इसे गलत संचार बताते है। लेकिन जब झूठ पकड़ा जाता है तो वही नेतृत्व यह कहते हुए बटररिंग में जुट जाती है कि इसमें गलत क्या है। अब करते है किट की बात...चीन से किट मंगानी है तो इसके लिए ज्यादा टेस्ट करने का दबाव बनाने वाले पिछले नेतृत्व ही थे और अपने एरिये में ही सबसे पहले उछलकर ये किट मंगाई गई। सौदा सबको हमेशा लुभाता ही रहा है, खासतौर पर अगर वह विदेशी हो। मगर उसके चक्कर में आप लोगों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं, क्योंकि ये किट तो घटिया हैं। चीन की चाटुकारिता भी दिखी और लोगों की जान जोखिम में देखे जाने की स्थिति का भय भी दिखा। वैसे चाइनीज वायरस को फैलने में तबलीगी जमात ने मदद की है, ये कोई अबूझ पहेली नहीं है। ये बात पूरी दुनिया जानती है और भारत में वायरस का संक्रमण बहुत हद तक काबू में हो जाता अगर जमात के मरकज से ये नहीं फैलता। मगर कथित सेकुलर लोगों ने सबसे बड़ा कम्युनल काम ये किया कि जमात की गलती देखने की बजाय इस गलती की ओर इशारा करने वालों को इसी का ठहरा दिया। अब जब उन्होंने ऐसा कर ही दिया, तो देखना होगा कि यह सोच उन्होंने इजाद की कहाँ से। कहीं ये उनका काफिरों से डर तो नहीं! फिर भी बाकी सबको ‘काफिर’ मानते हैं, उनसे नफरत करते हैं और उनकी अच्छी बात भी बुरी लगती है। समझने वाली बात यह है कि जो जमात की हिमाकत कर रहे हैं, जो इस्लामी डर के नाम से समाज में जहर घोल रहे हैं, वही इस्लाम के असली दुश्मन हैं क्योंकि वे चाहते है कि इस्लाम कट्टरपंथी लोगों के हाथों में ही बंधक बना रहे। वे मानते हैं कि कोरोना पर पूरे मुस्लिम समुदाय को भ्रमित करने वाला नेतृत्व ही दरअसल असली इस्लामी नेतृत्व है, क्योंकि ये उनके उसी हसीन ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगाता है। दरअसल, सत्ता विरोधी राजनीतिक दल इसी झुंझलाहट, आक्रोश और आर्थिक नुकसान को अपने हित में भुनाना चाहते हैं। ताज्जूब की बात है कि जिस समय आप संकट पर काबू पाने में जुटे हुए हैं, वहीं देश का नागरिक होने के बावजूद कुछ लोग इस संकट को बढ़ा देना चाहते हैं, क्योंकि उनके लिए जब तक मानवता का यह संकट दूसरे दल के राजनीतिक संकट में परिवर्तित नहीं होगा, तब तक उनकी दाल नहीं गलेगी। 

 

 

इतना ही नहीं आक्रोश को रोकने के लिए यदि प्रशासनिक सख्ती होती है तो इसे दोगुनी स्पीड से भड़काया जा सकता है। लोग किन परिस्थितियों में हिंसाचार पर उतर सकते हैं, राजनीतिक दल बखूबी जानते हैं। कोरोना त्रासदी से ठीक पहले दिल्ली दंगों में हम सबने यह देखा है। लाशों पर राजनीति करने वाले, आक्रोश पर राजनीति करने वाले आज फिर ताक में हैं। उन्हें भूख, गरीबी और बेकारी को स्थायी झुंझलाहट में बदलना और उसे अपनी राजनीति का औजार बनाना आता है। यह सब काम किस तरह से करना है, वे बहुत अच्छे से जानते हैं और दशकों से यह काम करते भी आए हैं। इस बार भी उनकी चाल कुछ ऐसी ही है। प्रशासनिक अमले पर हमला विभिन्न स्थानों में पुलिसकर्मियों को निशाना बनाना, डॉक्टरों से दुर्व्यवहार और क्वारंटाइन केंद्र की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करना, ये सब दरअसल अवसरयन्त्र हैं। ये अवसरयन्त्र क्रोध को अराजकता में बदलने और उस आक्रोश को सीधे-सीधे लोगों की परेशानी से जोड़ने की कड़ी है मतलब लोगों को भड़काना, उन्हें राज्य या देश के खिलाफ खड़ा करना, हिंसाचार पर उतारू करना और फिर बताना कि यह मजलूम और पीड़ितों की आवाज है, जिसे दबाया जा रहा है। इस राजनीति की तुरंत काट करना जरूरी है, वरना भारत एक संकट से गुजरते हुए दूसरे बड़े संकट में धंस सकता है। इसलिए जरूरी है कि क्रांति के सपनों को हकीकत में बदलने का कुचक्र करते लोगों की खतरनाक मंशा को समझा जाए। यह रोक लोकतंत्र पर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना पर चोट करने वालों के लिए है।इसके लिए आत्ममंथन की ज़रूरत है कि हम ये आंकलन कर लें कि लाभ-हानि पर्यायों को दूर रखते हुए हमें किस तरह द्रुतगामी के नीतिबद्ध तरीकों पर अमल करना है, जिससे धर्मनिरपेक्षता के गोलबंदी का आभास भी न हो।

लॉकडाउन क्व साथ भड़ास अभी बाकी है...