कोरोना के पुल पर झूलती ग़मगीन मजदूरों की जद्दोजेहद...

आज जब देश का मजदूर वर्ग प्रवासी, दिहाड़ी मजदूर, ठेका मजदूर, मौसमी मजदूर, ठेले खोमचे वाले, छोटे सेवागार में आने वालें नाई, धोबी, बिजली मैकेनिक, प्लम्बर आदि और खेत मजदूर जो कहीं न कहीं केंद्र और राज्यों की सरकारों की बेरहमी के शिकार हो चुके है। जो कसर रह गयी थी, उसे कोरोना जैसे वायरस ने पूरी कर दी। कोरोना वायरस के संवेदनशून्य रवैये, दमन और उत्पीड़न से जूझते हुए सड़क-दुर्घटनाओं और भूख से जान गँवाते ये मजदूर अपने घर पहुँचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश का सत्ता-प्रतिष्ठान और नेतृत्व प्रमुख इस सबकी तरफ से आँखें मूंद कर खुद को दुनिया की महाशक्तियों के समकक्ष देखने की आत्ममुग्ध ख्वाहिश में बीस लाख करोड़ के पैकेज का धारावाहिक ऐलान कर रहे हैं, जिस पर किसी को भी यकीन है। ऐसा नहीं लगता ! नेतृत्व भक्त लोग भले ही इन सरकारी घोषणाओं पर यकीन कर लें और भले ही संचार माध्यम उन पर संग्राम प्रकट करते हुए सरकार की दरियादिली से लोगों को कायल करने की कोशिश करे, लेकिन देश के आमजन, देश के मेहनतकशों और मजदूर वर्ग को पिछले 60 से अधिक दिनों के अनुभव से सिखा दिया है कि खोखले  दिलासे पर यकीन करके बैठे रहने की कीमत उन्हें अपनी जान देकर ही चुकानी पड़ सकती है, इसलिए वे सड़कों पर हैं, अपने गाँव की ओर बिना किसी साधन के ही वापसी में जुट गए हैं।उन्हीं गाँवों और कस्बों की ओर जहाँ से निकलकर बेहतर कल की तलाश में वे शहरों में आए थे। वही शहर जो कल तक भारतीय पूँजीवाद की बढ़ती ताकत के प्रतीक थे, जिन्हें रोजगार के अच्छे अवसरों के लिए और अच्छी सुविधाओं के लिए जाना जाता था। सामन्तवादी व्यवस्था के सताए हुए लोग वर्ण और जातिगत उत्पीड़न के शिकार लोग, भूमिहीन और बेसहारा लोगों ने शहरों में आकर कुछ हद तक ही सही, क्रूर सामन्ती निजाम से राहत पाई और एक तरह की आजाद फिजा में साँस ली। झुग्गी-झोपड़ियों में रहे, सड़कों पर, रैन बसेरों में रातें काटीं,  अमानवीय हालात में फैक्ट्रियों में काम किया- धीरे-धीरे उनमें से बहुत से निम्न मध्यवर्गीय और कुछ मध्यवर्गीय जिन्दगी हासिल कर सके और दूसरों के लिए उदाहरण बने। उनकी कामयाबी की दास्तानें लाखों दूसरे लोगों को शहरों की ओर खींचती रहीं। 




लगभग दो दशक से अधिक में शुरू हुआ ये खुले पूँजीवाद का दौर निजीकरण वैश्वीकरण और उदारीकरण के नारों के साथ आया। शुरुआती मतभेदों के बाद देश की तमाम राजनीतिक पार्टियों, नौकरशाहों और पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों के बीच इन नीतियों पर आम सहमति बन गई और देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह देशी-विदेशी पूँजी के लिए खोल दिया गया। 90 के दशक में उभरा स्वदेशी आन्दोलन ठंडे बस्ते में डाल दिया गया, डब्ल्यूटीओ और गैट समझौते को गुलामी का दस्तावेज मानने वाले खामोश हो गए। पिछले 3 दशक में किये जाने वालें नेतृत्व से तमाम छोटे दलों की गठबंधन सरकारें बनती रही हैं और उन्होंने एक-एक करके पूँजी निवेश और मुनाफाखोरी पर लगे तमाम प्रतिबंधों को हटाया है। देश की जमीनें और खनिज संसाधन कौड़ियों के भाव देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले की गई हैं, उन्हें टैक्सों और श्रम कानूनों में तरह-तरह की छूटें दी गई हैं, उस हर क्षेत्र में उनके लिए प्रवेश द्वार खोले गए हैं, जो पहले सरकारी नियन्त्रण में होता था। परिणामस्वरूप देश में शहरी अर्थव्यवस्था, उद्योग धंधों और सेवाओं का निजी क्षेत्र में अभूतपूर्व तेजी सेविस्तार हुआ। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था खेती और उससे जुड़े कामों की कुल अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी सिकुड़ती चली गई। आज ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कुल हिस्सेदारी घटकर 13 प्रतिशत से भी कम रह गई है जबकि अभी भी देश की दो-तिहाई के लगभग आबादी ग्रामीण इलाके में रहती है। इस गैर बराबरी पूर्ण विकास ने गाँवों के गरीबों के ऊपर शहरों में पलायन के लिए दबाव बनाया है। खेती के पूँजीवादी पैमाने पर संगठन की सरकार की कोशिशों के कारण किसान साहूकारों और बैंकों के कर्जों में दबते चले गए और शहरों में आत्महत्या करने पर मजबूर हुए। शहरों में अच्छी कमाई के अवसर और खेती में पूँजी निवेश के लिए गाँव के छोटे और गरीब किसानों की भारी आबादी सीजनल लेबर के तौर पर शहरों में पलायन करने लगी। पिछले 3दशकों का दौर गाँवों से शहरों की ओर बढे रोजगार और बेहतर जिन्दगी की तलाश में बड़े पैमाने के पलायन का गवाह भी बना। जिसमे अरबपतियों के बढ़ने की खबरें सुर्खियाँ बनती रहीं और उन्हें देश के विकास का एक पैमाना बनाया गया, लेकिन यह गुमनाम पलायन आँखों से ओझल रहा।

 

 

शहर के बाहरी इलाकों में गाँवों से लोगों का आना चुपचाप जारी रहा, वह छोटी-छोटी कोठरियों में ठुंस कर फ्लाईओवरों के नीचे, फुटपाथों पर, रेलवे स्टेशनों और पार्कों में अमानवीय परिस्थितियों में जीते रहे जिसमे वह एक बेहतर कल का सपना लिये दुश्वार जिन्दगी का सफर तय करते रहे। इन पिछले 30 वर्षों में हम सभी ने शहरों में आबादी की एक अभूतपूर्व वृद्धि देखी है। हमारे देश की सरकारों और राजनीतिक पार्टियों ने इस प्रवासी आबादी के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। हाँ सबने उन्हें अच्छा वोटबैंक समझा। उनके लिए आज भी सस्ता राशन, बिजली और पानी ही मुद्दे हैं लेकिन पार्टियाँ दिलासे ही देती हैं और दूसरी तरफ पीठ फेरते ही भूल जाती हैं, जो कुछ भी इन लोगों ने हासिल किया है, वह इन पार्टियों या सरकारों के कारण नहीं बल्कि अपनी मेहनत और अपने दम पर किया है, लेकिन पिछले कुछ सालों में देश की अर्थव्यवस्था में ठहराव के साफ लक्षण उभरने लगे थे। नोटबंदी के साथ ही साथ अन्य दबावों के चलते देश के बड़े उद्योगों में तेजी की वह चमक गायब हो गई थी, उपभोक्ता सामानों की बिक्री घटती गयी, मकानों और फ्लैटों के खरीदार नहीं मिल पा रहे थे, इतना ही नहीं ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री  में भी जबरदस्त मन्दी आई थी। बाजार में तेजी लाने के तमाम सरकारी प्रयास किये गये लेकिन उन्होंने भी गिरती अर्थव्यवस्था के चलते मुहँ की खायी, ऐसे में आये सम्पूर्ण विश्व की आपदा रूपी कोरोना संकट ने हमारे देश के मजदूर वर्ग को झकझोर के रख दिया है, अब देखने ववाली बात ये है कि इन लाचार और ग़मगीन मजदूरों की जद्दोजहद उन्हें कोरो संकट से पार लगाने में कितना इंतज़ार कराती है !

 

लॉकडाउन के साथ भड़ास अभी बाकी है...