फिर एक बार शर्मशार होती इंसानियत !

सुबह-सुबह ये  फ़ोन भी जीना दुस्वार किये हुए है। जब से यह संचार क्रांति का दौर आया है तब से बस हर पल यह फ़ोन हमारी निज़ी ज़िन्दगी में ज़हर घोलता रहता है। वक़्त और बेवक्त बस फ़ोन बजता रहता है। नाश्ते की मेज़ पर जब फ़ोन ने ब्लिंक किया तो देखा कि विभिन्न संचार माध्यमों के द्वारा तस्वीर और विडियो शेयर किया गया था। जब इसे देखा तो एक बार फिर से इंसानियत को शर्मसार करने और दिल को झकझोर देने वाली तस्वीर के साथ एक विडियो सामने था। बीते दिन केरल के मलप्पुरम जिले  में गर्भवती हथिनी के साथ जो दिल दहलाने वाली घटना हुई थी, विडियो उसी घटना से सम्बंधित था। वाकई इस विडियो को देखने के बाद दिमाग विस्फोटक स्थिति में आ गया कि आखिर कैसे एक इंसान एक बेजुबान जानवर जिसके गर्भ में एक नन्ही-सी जान भी पल रही थी जो इंसान के पास इस उम्मीद से आया था कि उसे मानव के माध्यम से अपनी क्षुदापूर्ति के लिए कुछ मिल जायेगा, लेकिन एक इंसान ने इंसानियत को तार-तार करने वाली हरकत की और उस हथिनी को अनानास में विष्फोटक तत्व रख कर खाने को दे दिया। सोचने में तो ऐसा लगता है कि जैसे वह इंसान जाहिलियत से भी परे किसी मानसिक स्थिति का होगा वरना ऐसी जाहिलियत करने के लिए किसी का रोआं भी साथ नहीं दे सकता है। इस घटना का विडियो पूरे इन्टरनेट पर वायरल हो रहा है। आज कल स्मार्टफोन का ज़माना है लिहाज़ा हर कोई बहुत आराम से ऐसे विडियो को शेयर कर के आगे बढ़ा देता है। लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि इस स्मार्टफोन के दौर में फ़ोन भले ही स्मार्ट हो गया हो लेकिन हम इंसान ज़रूर स्टुपिड हो गया है। अब भला इंसानों की ज़ात को कौन समझाए कि जब वो एक बेजुबान गर्भवती जानवर भटकते हुए सबसे मदद की गुहार लगा रहा था तब तो किसी ने उसकी कोई भी मदद नहीं की, शायद अगर कोई और भी उस इंसान से पहले उसे पेट भरने के लिए कुछ राहत सामग्री दे देता तो शायद आज उसके साथ ऐसा होता। वैसे भी मेरा अपना मत है कि अब हम हिंदोस्तानी लोगों में किसी के दर्द को अपना दर्द समझने का जज्बा ना के बराबर सा हो गया है। अब हम लोग मदद के लिए हाथ बढ़ाना तो दूर किसी की तरफ आशा की नज़र तक नहीं फेरते। हर रोज़ सड़को पर, ऑफिस में, बस इत्यादि में इंसानियत यूँ ही शर्मसार होती रहती है, लेकिन हम इंसान ना हो कर बल्कि हाड-माँस की कठपुतली की तरह रियेक्ट करते हैं। एक दौर था जब इंसान दूसरे इंसान के लिए वक़्त-बेवक्त खड़ा रहता था, लेकिन ना तो अब वैसा दौर है और ना ही वैसे लोग हैं। इस आपधापी की ज़िन्दगी में आपसी सौहार्द तो शायद मर सा गया है, सोचने वाली बात ये है कि आज जब इंसान ही किसी के लिए वक़्त नहीं निकलता है उसकी पीड़ा को समझता है तो किसी बेजुबान के दर्द को कैसे समझेगा।

 

 

इस सबके लिए कहीं ना कहीं हमारा समाज भी सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। अपनी भागदौड़ की दिनचर्या में हम कुछ ऐसा फंसे हैं कि ना चाहते हुए हम बस अपनी ही दुनिया में मग्न रहते हैं। हर पल हमें बस अपने फ़ायदे के सिवाय कुछ नहीं दिखता है। वैसे तो अपने देश में एक कहावत बहुत तेज़ी से फैल रही है कि भले ही आप किसी भी मुसीबत में फँसे हों लेकिन क्या मजाल जो आपको वक़्त रहते कोई मदद मिल पाए। आप भले ही लोगों की भीड़ के सामने मदद की भीख के लिए गिड़गिड़ा के अपने जूते घिस लें लेकिन तमाशबीनों की भीड़ सिर्फ मज़ा लेना जानती है। मदद से तो इनका दूर-दूर तक सरोकार नहीं है। साथियों आज के इस युग में कहीं ना कहीं इंसानियत वाले फैक्टर की बहुत ज्यादा ज़रुरत है। अक्सर जब राह चलते हमसे कोई मदद की गुहार लगाता है तो कहीं ना कहीं हम उस इंसान को अनदेखा कर देते हैं। प्राय ऐसा करने के पीछे बस एक ही कारण होता है कि हम बस अपनी बिजी लाइफस्टाइल में इतना ज्यादा खो जाते हैं कि दूसरे की मदद करने से ज्यादा हम उस इन्सान को और उसकी तकलीफों को इन्ग्नोर करने में अपनी बेहतरी समझते हैं, ठीक इसी तरह का बर्ताव हम एक बेजुबान जानवर के साथ भी करते है जो कभी कभार हमारे पास इस उम्मीद से आते है कि उन्हें कुछ खाने को मिल जायेगा या उनकी चोट पर कोई मरहम लगा देगा, लेकिन हम इतने कठोर दिल हो गए हैं कि हमारे सामने ही कुछ गलत होता है और हम नाममात्र विरोध भी नहीं दर्ज करते हैं। शायद इसके पीछे कभी-कभी हम यह भी सोचने लग जाते हैं कि कहीं ना कहीं किसी के साथ जो भी ज्यादती हो रही है वो कोई हमारा सगा या सम्बन्धी तो है नहीं। फिर हम उसके लफड़े में क्यों उलझें? लेकिन यह सोचना पूरी तरह से गलत है क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि जो आज किसी के साथ हो रहा है वो कल हमारे साथ नहीं हो सकता है। केरल में हुई इस घटना से एक बात तो तय है कि जब एक इंसान किसी जानवर के साथ ऐसा करने में नहीं कतराया तो इसके आगे कुछ नहीं हो सकता ये हमारा अपने दिल को झूठा दिलासा देने के बराबर ही है बस ! ईश्वर ना करे कि कल अगर ऐसा कुछ हमारे साथ हुआ और किसी ने भी हमारी मदद नहीं करी तब हम क्या सोचेंगे। हो सकता है कि मेरी इस सोच को आप कम्युनिस्ट वादी सोच समझें लेकिन दरअसल मामला यहाँ किसी राजनीतिक सोच का नहीं है बल्कि इंसानियत की प्रष्टभूमि पर आधारित सोच का है। साथियों मैं इस लेख और जनमानस भड़ास के माध्यम से बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि एक अखण्ड भारत के निर्माण के लिए सबसे पहले हमें एक सफल समाज का निर्माण करना होगा, सफल समाज तभी ही संभव है जब हम एक दूसरे की मदद करने को और परस्पर सहयोग देने के लिए हमेशा तैयार रहें। साथियों यही जज्बा सदियों से हमारे देश को विश्व में एक अलग मुकाम देता रहा है। मैंने किसी फिल्म में एक डायलॉग सुना था कि हम भारतीय हैं और हम दुश्मनी में भी मानवता का भाव रखते हैं। सच कहा जाए तो अकेला एक यह संवाद ही हमें बहुत कुछ सिखाता है।

 

 

अंत में मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा कि हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि अब से अगर कोई भी मुसीबत में हमसे मदद माँगने आएगा चाहे वो एक बेजुबान जानवर ही क्यों ना हों, तो हम हर संभव मदद करेंगे। इसके अलावा हमें अथक प्रयास करना होगा कि फिर कभी ना किसी निर्भया की अस्मत लुटे और ना ही फिर कभी केरल के मलप्पुरम जिले जैसे हादसे से इंसानियत शर्मसार हो !

 

भड़ास अभी बाकी है....