अनलॉक देश में लॉक अर्थव्यवस्था जैसे हालात ...

लॉकडाउन के पांचवें चरण में, जिसे साधारण बोल चाल की भाषा में अनलॉक-1.0 कहा जा रहा है, कोरोना के संक्रमण को काबू करने के सारे तरीके व्यक्तियों के बीच दो गज की सामाजिक दूरी और मास्क लगाने की अनिवार्यता पर ही टिके हुए है। जिसके तहत ही लॉकडाउन में प्रतिबंधित स्थलों को खोला गया है जहाँ  आने-जाने वाले लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग एवं मास्क की अनिवार्यता का पूरा ख़याल रखना है। आज हमारे देश में कोरोना के केस प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं जिसके कारण दुनिया के सर्वाधिक पीड़ित देशों में हमारा नाम शामिल हो गया है। ऐसे में सवाल है कि कोरोना की चेन तोड़ने के नाम पर दो महीने से अधिक का देशव्यापी लॉकडाउन, जिसमें लोगों के घरों से निकलने तक की मनाही थी, निष्फल तो होकर नहीं रह गया? तब तो विभिन्न पाबन्दियों के संदर्भ में कहा जा रहा था कि लोगों की जान बचाना ज्यादा आवश्यक है क्योंकि वह बची रहेगी तो जहान की भी चिन्ता कर लेंगे, जान है तो जहान है..वगैरह-वगैरह। लेकिन अब अनलॉक-1.0 में उन प्रतिबन्धों को अनावश्यक मानकर नयी नीति अपना ली गई है, जिसके तहत कहा जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था को भी बचाये रखना है क्योंकि उसके बिना न व्यवस्था संचालित हो सकेगी और न कोरोना का संक्रमण रोकने में ही सफलता मिलेगी। लॉकडाउन शुरू हुआ तो देश में संक्रमितों की संख्या सैकड़ों में ही थी, लेकिन अब अनलॉक के दौर में ये आंकड़ा तीन लाख के पार हो गया है और निरन्तर तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। यकीनन, यह इस सवाल का औचित्य सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हम लॉकडाउन शुरू करते हुए सही राह पर थे या अब उसे हटाते हुए सही हैं? लॉकडाउन में जहां व्यक्ति का ही सर्वाधिक महत्व बताया जा रहा था और सारा जोर इस पर था कि उसे वायरस से परे कैसे रखें, प्रधानमंत्री 21 दिन में उस पर विजय पा लेने की बात कर रहे थे, वहीं अब अनलॉक 1.0 में मान लिया गया है कि फिलहाल, हमें कोरोना के साथ ही जीना पड़ेगा। इसलिए उसे रोकने के नाम पर लॉकडाउन से पहले से ही खस्ताहाल होती आ रही देश की अर्थव्यवस्था को और नीचे नहीं जाने दिया जा सकता। अब पांच ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था के लक्ष्य की चर्चा तो कोई नहीं करता, लेकिन उसको संभालने को लेकर लोकल के लिए  वोकल जैसे प्रयोगों की बात ज़रूर की जा रही है। 

 

 

आज व्यक्ति और समाज दोनों की रक्षा के पुराने मानक सीमित या परे कर दिये गये हैं। रेलों एवं विमानों का सीमित परिचालन तो लॉकडाउन के चौथे चरण में ही शुरू  कर दिया गया था, अब बसों, टैक्सियों, टेम्पो और अन्य सार्वजनिक वाहनों पर प्रतिबन्ध भी निरर्थक करार दिये जा रहे हैं। पहले रेलों, बसों और हवाई जहाजों के सीमित परिचालन में भी सोशल डिस्टेंसिंग बरती जा रही थी। इसके लिए बीच-बीच की सीटों पर यात्री नहीं बैठाये जा रहे थे, लेकिन अब उस नीति को भी कहीं न कहीं नमस्ते ही कर दिया गया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति का जीवन समाज और उसकी आवश्यकताओं पर आधारित है और वह समाज से पृथक नहीं हो सकता, उसके उन्नयन के लिए समाज की व्यवस्था प्रगतिशील बनाना ही पड़ता है। यही कारण है कि जो चीजें पीछे की ओर ले जायें, उन्हें प्रतिगामी बताकर हम निरंतर उनसे बचने के प्रयास करते रहते हैं। इस लिहाज से भी यह देखते रहना जरूरी है कि हम पहले कहां गलत थे या जो आज कर रहे हैं, उसमें कहाँ प्रयास बाकी रह गया है? लॉकडाउन के वक्त राजनितिक नेताओ ने प्रवासी श्रमिकों को वापस लाने के प्रश्न पर कहा था कि इससे न सिर्फ अव्यवस्थाओं का जन्म होगा, बल्कि लॉकडाउन के उद्देश्य भी पूरे नहीं होंगे, इस कारण लॉकडाउन की घोषित नीतियों के स्थापित रहने तक किसी भी रूप में इसकी अनुमति नहीं देंगे। लेकिन बाद में लोक मानस के दबाव ने सत्तादल को अपना रवैया बदलने के लिए विवश कर दिया। इसका एक बड़ा कारण यह था कि लॉकडाउन में जो प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों में फंसे थे और घर वापस आने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे। अगर संक्रमितों की मौतों के अनुपात के आधार पर ही निर्णय किये जाने थे, जैसा कि नीति परिवर्तन के पक्षधर परिवर्तनों के पक्ष में तर्क देते हुए कह रहे हैं, तो पहले भी तो देश के संक्रमितों में कोरोना को हराकर जिन्दा रहने वालों का अनुपात अधिक था और यह उनकी भीतरी जीवनी शक्ति का परिणाम था। इसी जज्बे से पहले भी हमलोगों ने कई महामारियों का चाहे वे कितनी भी बड़ी क्यों न रही हों, मुकाबला किया और सिद्ध किया है कि अंतत: व्यक्ति नहीं बल्कि व्याधियां ही हारती हैं। उन्होंने कितनी भी बड़ी संख्या में लोगों को क्यों न प्रभावित किया हो। कोरोना पर काबू पाने के लिए भी न सिर्फ हमारे देश अपितु सम्पूर्ण विश्व  में प्रयास चल रहे हैं। इसका टीका या वैक्सीन बनाने के लिए प्रयोगों की भी एक लम्बी श्रृंखला निरंतर प्रयासरत है। ये अलग बात है अभी इसमें कोई सफलता हाथ नही लगी है। 

 

 

आज कोरोना वायरस से प्रभावित होने वालों की संख्या भले ही निरंतर बढ़ रही हो, लेकिन उसकी दक्षता कुशल नेतृत्व के कारण घट भी रही है, उसे हराकर स्वस्थ होने वालों का अनुपात 43 प्रतिशत से अधिक हो गया है। लेकिन इस परिवर्तन को स्वाभाविक माना जाये या अन्य कारण, इसके मूल्यांकन को समग्र वास्तविकता पर आधारित करें तो यह तो लगभग सिद्ध ही है कि दुनिया की देखा-देखी किया गया चार चरणों का देशव्यापी लॉकडाउन देश के लिए अति हितकर नहीं रहा और इसकी बची हुई कसर अनलॉक-1.0 ने भी पूरी कर ही दी है।

भड़ास अभी बाकी है...