चीनी नमस्ते...ए ज़नाब क्या ये तत्काल संभव है !

पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन के बीच लंबे समय से जारी गतिरोध के बीच 20 भारतीय जवानों की शहादत के बाद दोनों देशों के बीच तनाव अपने चरम पर है। एलएसी के करीब दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं। वहीं देश के अंदर भी चीन के खिलाफ लोगों का आक्रोश चरम पर है। विभिन्न राजनीतिक दलों के अलावा लोग चीन को सबक सिखाने की मांग कर रहे हैं और इसके लिए सारे आर्थिक संबंध भी तोड़ने की मांग कर रहे हैं लेकिन इन सब गहमागहमी के बीच सबसे बड़ा सवाल है कि क्या यह संभव है? और क्या नेतृत्व में ऐसा हो सकता है? क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5-6 सालों में जब से नेतृत्व है, तब से भारतीय कंपनियों में चीन के पैसा लगाने की रफ्तार लगातार बढ़ी है। चीन की एक-दो नहीं, कई बड़ी कंपनियों ने भारत में लगातार बड़ा निवेश किया है और यह लगातार जारी है। आकड़ों के आधार पर साल 2014 में भारत की कंपनियों में चीन की कंपनियों ने 51 मिलियन डॉलर निवेश किया था जो कि 2019 में बढ़कर यह निवेश 1230 मिलियन डॉलर तक हो गया। मतलब 2014 से 2019 के बीच चीन ने भारतीय स्टार्टअप्स में कुल 5.5 बिलियन डॉलर का निवेश किया है। पिछले 7 साल के दौरान 2017 में चीन ने भारत में सबसे ज्यादा 1666 मिलियन डॉलर का निवेश किया है। चीन की जिन प्रमुख कपंनियों ने भारत में निवेश किया देश की 30 यूनिकॉर्न यानी एक अरब डॉलर (करीब 7600 करोड़ रुपए) या उससे अधिक वैल्यू वाली कंपनियों में से 18 में चीन की बड़ी हिस्सेदारी है। यूनिकॉर्न एक निजी स्टार्टअप कंपनी को कहते हैं जिसकी आर्थिक क्षमता  एक अरब डॉलर या उससे अधिक होती है। देश में ई-कॉमर्स, फिनटेक, प्रसार माध्यम, एग्रीकल्चर सर्विसेज और लॉजिस्टिक्स जैसी सेवाओं में ऐसी 75 कंपनियां हैं, जिनमें चीन का भारी निवेश है। कई रिपोर्ट में कहा गया है कि तकनीकी क्षेत्र में ज्यादा निवेश के कारण चीन ने भारतीय बाजार पर कब्जा जमा लिया है।अगर हम स्मार्टफोन बाजार की ही बात करें तो इसमें चीन की अकेले 71% से ज्यादा की हिस्सेदारी है। देश में स्मार्टफोन का बाजार करीब 2.5 लाख करोड़ रुपए का है और स्मार्टफोन बनाने वाली चीनी कंपनियों की इसमें पकड़ किसी से छुपी नही है।

 

 

आज चीनी ब्रैंड 71% से ज्यादा मोबाइल मार्केट पर कब्जा कर चुका है। इसी तरह 28 हजार करोड़ के भारतीय टेलीविजन मार्केट में भी चीनी कंपनियों का 47% तक कब्जा है। यह तो केवल बड़ी कंपनियों और स्टार्टअप्स में हिस्सेदारों का आंकड़ा है। इसके अलावा कई ऐसे छोटे कलपुर्जे से लेकर उत्पादन के लिए हर तरह के कच्चे माल के लिए भारतीय उद्योग जगत चीन पर ही निर्भर है और जिसका ठीकरा मोदी सरकार पर फोड़ा जा रहा है। महानविद् का कहना है कि मोदी सरकार ने एक तरह से भारतीय बाजार में चीन की पूरी तरह पैठ जमवा दी है। अब ऐसे में तनाव बढ़ने से नुकसान तो दोनों देशों को होगा, लेकिन हमारे देश पर अधिक असर पड़ सकता है। वास्तविकता की अगर बात की जायें तो चीन के उत्पादों के बहिष्कार की शपथ लेने से कुछ नहीं होगा, बल्कि सरकार को उन नीतियों को पलटना होगा, जिनकी वजह से सैरेमिक टाइल्स से लेकर, कटलरी तक धड़ल्ले से देश में आती है। अपनी कूटनीति के चलते चीन एशिया का सबसे शक्तिशाली देश बनता जा रहा है। आर्थिक शक्ति, सामरिक शक्ति और श्रम शक्ति में चीन ने एशिया के अन्य देशों को पछाड़ दिया है। सम्पूर्ण एशिया में चीन एक मात्र ऐसा देश है जो दूरगामी नीतियों के अनुसार चलता है। वह अनुशासित तरीके से अपना एक एजेंडा लागू करता है और अपनी रणनीति के चलते भारत की अर्थव्यवस्था में हमेशा से ही सेंध लगाकर भारतीय उद्योग धंधों को चौपट किया है। चीन ने हमारे देश की मुक्त अर्थव्यवस्था वाली नीति की ऐसी धज्जियां उड़ायी है कि आज हमारे देश का बड़े से बड़ा औद्योगिक घराना चीन से टक्कर लेने से डरता रहा है। चीन की वस्तुएं भारतीयों के दिल और दिमाग में अपना घर बनाये हुए है। चीन की नीतिबद्धता का जीता जागता उदाहरण ये है कि देश  में अगर होली हुई तो पिचकारी से लेकर गुलाल तक और दीवाली हुई तो लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा से लेकर आतिशबाजी तक, रक्षा बंधन हुआ तो राखियों और मकर संक्रांति हुई तो पतंग और मांझे से भारत के बाजारों को पाट डाला।  एक सर्वेक्षण रिपोर्ट से ज्ञात है कि हर छठे भारतीय ने चीन के उत्पादों को खऱीदा है। चीन भारत को कोई सस्ते उत्पाद नहीं दे रहा, बल्कि गरीब अफ्रीकी देशों के लिए वह जो उत्पाद बनाता है, उन्हें ही भारत भी भेजता है। अमेरिका सहित अनेक यूरोपीय देशों ने चीन के उत्पादों के लिए अपने बाजार के दरबाजे बंद कर रखे हैं। कई बार ऐसा हुआ है कि यूरोपीय देशों से फेल हुई चीन के उत्पादनों की खेप भारत के बाजार में हाथों हाथ बिक गई।

 

 

चीन में दुनिया के सबसे ज्यादा श्रमिक हैं जिनकी संख्या लगभग तीस करोड़ है। साथ ही वहां की औद्योगिक नीतियां भारत की तरह पेचीदा नहीं हैं। चीन की कारखानों से सबसे ज्यादा प्रदूषण होता है और ऊर्जा का भी सबसे ज्यादा खर्चा होता है। साम्यवादी देशों का अगुवा बना चीन आज दुनियाभर के उन देशों की चिंता का विषय हुआ है जहां चीन के उत्पादों ने घरेलू बाजार को चौपट कर रखा है। आज एक कुशल नेतृत्व और हालातों के देखते हुए जिसमें हमारे देश के कोरोना योद्धाओं के पास पर्याप्त पीपीई किट और टेस्टिंग किट भी नही है, फिर भी यदि हम सभी चीनी उत्पादों का विरोध पूरी शिद्दत से करते है तो तत्काल न सहीं लेकिन एक दिन जरूर ऐसा आएगा जब हम इन्हें पूरी तरह से नमस्ते कर चुके होंगे !  

भड़ास अभी बाकी है...