विकास के कफ़न में हो गए न जाने कितने राज़ दफ़न !

दो दिन पहले गुरुवार को मध्यप्रदेश के सुप्रसिद्ध महाकाल मंदिर में चिल्ला-चिल्लाकर खुद को विकास दुबे कानपुर वाला बताने वाले दुर्दांत को पुलिस ने कानपुर में ही मार गिराया है। कानपुर जोन के अधिकारी ने  दुर्दांत अपराधी की पुलिस से मुठभेड़ की जानकारी दी। उसे स्ट्रेचर पर गंभीर हालत में लाला लाजपत राय हॉस्पिटल (हैलट) में लाया गया था। दरअसल विकास दुबे को कानपुर ला रही एसटीएफ के काफिले की गाड़ी आज सुबह दुर्घटनाग्रस्त हो गई। हादसा कानपुर टोल प्लाजा से पचीस  किलोमीटर दूर हुआ। बताया जा रहा है कि जब गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हुई, उस समय विकास दुबे हथियार छीनकर भाग निकला। सोशल मीडिया पर लोग अपने-अपने हिसाब से इस पर कह-सुन रहे हैं। विकास दुबे के पकड़े जाने से कई बड़े नामों का खुलासा हो सकता था, क्योंकि दुर्दांत अपराधी के संबंध कई बड़े राजनेताओं और पुलिस से थे। उसके मारे जाने से सारे राज उसके सीने में ही दफन हो गए। अब सवाल ये उठता है कि ये महज़ इत्तेफाक है या कोई सोची समझी कूटनीति ! कानपुर कांड से लेकर सियासी गलियारों में कनेक्शन और पुलिस से नेक्सस का खुलासा हो सकता था विकास दुबे के द्वारा। लेकिन अब उसके सारे राजदार सुरक्षित हो गये है। बीते दिनों कुख्यात अपराधी विकास दुबे को पकड़ने गई पुलिस टीम को जिस तरह विकास दुबे की गैंग ने घेरा और आठ पुलिसकर्मियों की शहादत हुई, उससे पता चलता है कि उत्तरप्रदेश में अपराधियों का हौसला कितना बुलंद है, कानून व्यवस्था कितनी सड़ी-गली है और राजनीति के साथ अपराध का गठजोड़ कितना मजबूत है। पहले जब इस तरह की कोई बड़ी घटना होती थी, तो सरकार में बैठे लोगों से इस्तीफे की मांग होती थी। समाज ऐसी घटनाओं से भीतर तक हिल जाता था। नैतिक मूल्य कितनी तेजी के साथ गिर रहे हैं, इस पर विमर्श होते थे। लेकिन अब इस तरह की दो-चार बातें सोशल मीडिया पर हो जाती हैं और समाज की सारी जिम्मेदारी वहीं खत्म हो जाती है। सत्ता में बैठे लोगों की तो बात ही क्या की जाए, जिनके पास हर घटना-दुर्घटना का एक ही इलाज है, पीड़ितों को मुआवजे का ऐलान। इसके बाद सत्ता की सारी शक्ति स्थितियों को मैनेज करने और बयानबाजी में लग जाती है। कानपुर की घटना में एक साथ आठ पुलिसकर्मी मारे गए, इसलिए अबकी बार घटना को बड़ी कहा गया, लेकिन इससे पहले भी पुलिस वालों पर जो हमले हुए या जिस तरह राजनैतिक दबाव ने उन्हें अपमानित किया, अगर उन्हें भी बड़ी घटना ही समझा जाता, तो शायद कानपुर जैसे हालात से बचा जा सकता था।

 

 

देश के अन्य राज्यों में भी कहीं खनन, कहीं रेत तो कहीं टिम्बर माफिया के निशाने पर पुलिस अधिकारी और जवान आते रहे हैं। ये माफिया किसी दूसरी दुनिया से अपनी शक्ति और पोषण नहीं पाते हैं कि उनके लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराया जाए। आमजनों के बीच से ही सत्ता, व्यापार और कानून का अनैतिक गठजोड़ किसी को दबंग बनाता है, तो किसी का हक मारता है। विकास दुबे जैसे लोग ऐसे ही अनैतिक गठजोड़ की पैदाइश है। आश्चर्य है कि इस गठजोड़ पर जितनी चिंता व्यक्त की गई, राजनीति के अपराधीकरण या अपराध के राजनीतिकरण को लेकर जितना मंथन किया गया, उतना अधिक समाज में विकास दुबे जैसे लोगों का जहर फैलता गया। दुःख इस बात का है कि अब भी इस जहर का इलाज ढूंढने में समाज और सत्ता की दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है। शायद अधिकतर लोग यह मान चुके हैं कि राजनीति में बाहुबलियों का साथ जरूरी है और बाहुबली अपने राजनैतिक रसूख के बूते प्रशासन को कठपुतली बनाये रखना चाहते हैं। प्रशासन में बैठे बहुत से लोग भी नियम और नीतिपुस्तिका की जगह उस इबारत पर यकीन करते हैं जो सत्ता और शक्ति संपन्न लोग उनके लिए लिखते हैं। शायद वक्त आ गया है कि प्रेमचंद के नमक के दारोगा का पुनर्पाठ किया जाए और उसमें आदर्शवादिता को तलाशने की जगह उस सच को समझा जाए, जिसे प्रेमचंद ने बरसों पहले देख और समझ लिया था। विकास दुबे हो या कोई और माफिया, ये रातों-रात खड़े नहीं हुए हैं। न इनमें इतना अनैतिक साहस अनायास आ गया कि वे अपनी गैंग के साथ समूची पुलिस टीम पर हमला बोल दें। इस सबके पीछे गहरी साजिश है। विकास दुबे पर पचास से अधिक मामले दर्ज हुए, वो एक इनामी बदमाश रहा और बावजूद इसके उसके पास अपने अपराध के साम्राज्य को चलाने के लिए पूरा नेटवर्क रहा, जिसमें सैकड़ों युवा सरकार के अलग-अलग विभागों से उसके लिए ख़बरें लाया करते थे। सभी जगह पर उसके गुर्गे मौजूद थे। जिस दिन पुलिस उसके घर पर आने वाली थी, उस दिन भी पहले ही उसे इस बात की खबर लग गई थी और उसने अपने आदमियों को सशस्त्र एकत्र करके हमला करने की तैयारी कर ली थी। जबकि पुलिस विभाग की तैयारी विकास दुबे जैसे कुख्यात अपराधी को पकड़ने की शायद थी ही नहीं। शहीद हुए सीओ देवेन्द्र मिश्रा के नेतृत्व में तीन थानों की फोर्स विकास के गांव दबिश देने पहुंची, लेकिन उनमें से किसी को यह अनुमान नहीं था कि वह इस तरह उन्हें घेर सकता है। उन्होंने विकास दुबे को किसी मामूली अपराधी की तरह पकड़ने की तैयारी की और यह चूक उन पर बहुत भारी पड़ी। 

 

 

सवाल यही है कि आखिर किसी शातिर अपराधी के बारे में पुलिस तंत्र के पास पूरी जानकारी क्यों नहीं थी और अगर जानकारी किसी के पास थी तो उसने किस वजह से छिपाकर अपने साथियों की जान दांव पर लगवा दी। इस घटना के बाद कई तस्वीरें सामने आई जिनमें विकास दुबे के राजनैतिक कनेक्शन समझ में आये। सत्ता या सरकार किसी की भी रही हो, विकास दुबे ने राजनेताओं के बीच अपनी पैठ बनाए रखी थी। उत्तरप्रदेश सरकार ने सीएए का विरोध करने वालों के नाम और तस्वीरों के पोस्टर चौराहे पर टांगे। डॉ. कफील खान को अरसे से कैद में रखा। बस विवाद पर भी गिरफ्तारी हुई, लेकिन विकास दुबे जैसे फलते-फूलते अपराधियों पर उसकी निगाह नहीं गई। क्या इसलिए कि उससे सरकार का कोई राजनैतिक विरोध नहीं था। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पुलिस विकास को ढूंढ ही रही है। अलबत्ता उसके आलीशान घर और महंगी गाड़ियों को तोड़ कर प्रशासन ने अपनी नाराजगी और सख्ती का परिचय दिया, विकास पर इनामी राशि भी बढ़ा दिया था लेकिन क्या इससे आठ पुलिस कर्मियों की जान वापस आ जाएगी या जो बची पुलिस फोर्स है, उसका जोश नए सिरे से लौट आएगा। घर और गाड़ी का तो दूसरा उपयोग भी किया जा सकता था। पुलिस को अगर सख्ती दिखानी ही है तो अपने ऊपर पड़ते राजनैतिक दबाव के खिलाफ दिखाए ताकि बेईमानी लापता हो जाए। सत्ता और अपराध के गठजोड़ से ईमानदारी के अलावा कोई दूसरी फोर्स नहीं लड़ सकती। विकास दुबे को पकड़ने गई पुलिस टीम को जिस तरह विकास दुबे गैंग ने घेरा और आठ पुलिसकर्मियों की शहादत हुई, उससे पता चलता है कि उत्तरप्रदेश में अपराधियों का हौसला कितना बुलंद है, कानून व्यवस्था कितनी सड़ी-गली है और राजनीति के साथ अपराध का गठजोड़ कितना मजबूत है। पहले जब इस तरह की कोई बड़ी घटना होती थी, तो सरकार में बैठे लोगों से इस्तीफे की मांग होती थी। समाज ऐसी घटनाओं से भीतर तक हिल जाता था। नैतिक मूल्य कितनी तेजी के साथ गिर रहे हैं, इस पर विमर्श होते थे। वहीं सत्ता में बैठे लोगों की तो बात ही क्या की जाए, जिनके पास हर घटना-दुर्घटना का एक ही इलाज है, पीड़ितों को मुआवजे का ऐलान। इसके बाद सत्ता की सारी शक्ति स्थितियों को मैनेज करने और बयानबाजी में लग जाती है। कानपुर की घटना में एक साथ आठ पुलिसकर्मी मारे गए, इसलिए इस बार घटना को बड़ी कहा जा रहा है, लेकिन इससे पहले भी पुलिस वालों पर जो हमले हुए या जिस तरह राजनैतिक दबाव ने उन्हें अपमानित किया, अगर उन्हें भी बड़ी घटना ही समझा जाता, तो शायद कानपुर जैसे हालात से बचा जा सकता था।

भड़ास अभी बाकी है...