कैसे मिटेगी अमीर और गरीब के बीच बढ़ती यह लकीर?

[सहीफ़ा खान]

संयुक्त राष्ट्र ने सन् 2000 में इंसानियत की तरक्की के लिए 18 लक्ष्य निर्धारित किए थे। जिसमें से एक यह था कि 2015 तक दुनिया से भूखमरी का ख़ात्मा हो जाएगा। लेकिन पिछले बीस सालों के आंकड़ो पर नज़र डाली जाए तो भूखमरी खत्म होने की बात तो दूर इसमें लगातार बढ़ोतरी ही हुई है। सोने पे सुहागा यह हुआ कि 2020 की शुरुआत में ही कोरोना महामारी ने सबका जनजीवन अस्त व्यस्त कर दिया और भूखमरी का आंकड़ा और खौफनाक हो गया। ऑक्सफैम की ‘द हंगर वायरस’ रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि कोरोना के चलते 12 करोड़ लोग 2020 के अंत तक भुखमरी के शिकार होंगें जिसमें से 12000 लोगों की भुख के कारण जानें भी जा सकती है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यह मौत के आंकड़े कोरोना वायरस से मरने वाले आंकड़ों से कहीं अधिक ज़्यादा होंगो। रिपोर्ट बताती है कि बंद सीमाओं, कर्फ्यू और यात्रा प्रतिबंधों ने कई देशों में खाद्य आपूर्ति को बाधित किया है। अफगानिस्तान, सीरिया, दक्षिण सूडान आदि सहित दुनिया के 10 सबसे खराब भुखमरी के 'हॉटस्पॉट' हैं। यहां महामारी के परिणामस्वरूप खाद्य संकट गंभीर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक पचास से अधिक देशों में लोगों के लिए पर्याप्त खुराक नहीं मिल रही है।
रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे मध्य-आय वाले देश भी इसके शिकार होंगे, क्योंकि वहां भी भुखमरी के तेजी से बढ़ रही है। यहां लाखों लोगों को इस महामारी ने अंतिम छोर पर धकेल दिया है।
रिपोर्ट में कहा गया है,“यहां तक कि दुनिया के सबसे अमीर देश भी इससे अछूते नहीं हैं। यूके सरकार के डेटा से पता चलता है कि लॉकडाउन के पहले कुछ हफ्तों के दौरान 7.7 मिलियन वयस्कों को अपना भोजन नहीं मिला या उन्होंने भोजन को कम कर दिया था और 3.7 मिलियन तक वयस्कों ने दान में मिले भोजन को खाया या एक खाद्य बैंक का इस्तेमाल किया।"
भारत में 2019 के दौरान 195 मिलियन लोग यानि जनसंख्या का 14.5% कुपोषित थे। इस कुपोषण की सबसे बड़ी वजह श्रमिकों को गरीबी और भुखमरी से नहीं बचाने में विफलता, भ्रष्ट और अक्षम खाद्य सहायता और सामाजिक सहायता और तेजी से अनिश्चित होता जलवायु जिसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है।
जैसा कि केंद्र सरकार ने कोरोनोवायरस के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए केवल चार घंटे के नोटिस के साथ देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की उससे लाखों लोग जो पहले से ही भुखमरी के कगार पर जीवन जी रहे थे जैसे ग्रामीण समुदाय, निम्न जातियां, अल्पसंख्यक समूह, महिलाएं और बच्चों को अचानक से अंतिम छोर पर धकेल दिया गया।
रिपोर्ट में कहा गया है, “अनुमानित 40 मिलियन लोग, मुख्य रूप से निम्न-जाति के प्रवासी मज़दूर जो घरेलू कामगार, रेहड़ी पटरी वाले या निर्माण मज़दूर वो सभी जो दैनिक मजदूरी कर अपना जीवन यापन करते हैं, रातों-रात बेरोजगार हो गए। इसके बाद मज़दूर अपने गाँव को वापस जाने लगे परन्तु सार्वजनिक परिवहन बंद हो जाने के कारण, हजारों लोग अपने गाँवों में पैदल ही चल पड़े।”
रिपोर्ट यह भी बताती है कि यद्यपि भारत सरकार ने व्यवसायों और परिवारों को समर्थन देने के लिए 22.5 बिलियन डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की है, परन्तु इसमें भारी भ्र्ष्टाचार और खराब योजना ने इसके उद्देश्य को पूरा नहीं किया। इसका मतलब है कि भारत के लाखों जो सबसे असुरक्षित हैं वो मदद से वंचित रह गए। लगभग 95 मिलियन बच्चें इसका शिकार हुए हैं। जो अब आंगनवाड़ी केंद्रों के अचानक बंद होने के कारण जिन्हें अब दोपहर के भोजन भी नसीब नहीं हो रहा है।
दरअसल, जब धन और संपत्ति अत्यधिक मात्रा में कुछेक व्यक्तियों के पास एकत्रित हो जाती है, तो उनकी आने वाली पीढ़ियां आमदनी के लिए, उस संपत्ति पर मिलने वाले किराया ब्याज पर निर्भर हो जाती है, जिससे वो कोई नया इन्वेस्टमेंट नहीं करतीं। जब इन्वेस्टमेंट नहीं होगा, तो नयी नौकरियां नहीं पैदा होंगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। बेरोजगारी बढ़ने के सैकड़ों दुष्प्रभाव हैं। इस तरह की अर्थव्यवस्था को किराए की अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है, जहां लोग अपने मेहनत की बदौलत नहीं, अपने पूर्वजों की संपत्ति की बदौलत अमीर बन रहे हैं। शहरों में जिन लोगों के पास किन्हीं कारणों से ज़मीनें हैं, वो भी इसी तरह अमीर बनते जा रहे हैं।
बढ़ती आर्थिक असमानता राजनीति के क्षेत्र में अलग-अलग तरीके से काम कर रही है। दरअसल, आधुनिक लोकतंत्र का मतलब उसकी संस्थाओं से है, क्योंकि संस्थाएं ही अलग-अलग तरह के नियम और कानून बनाती हैं। आर्थिक असमानता बढ़ने की वजह से राजनीतिक पार्टियों, न्यायालयों, विश्वविद्यालयों, मीडिया समेत तमाम संस्थाओं पर कुछेक परिवारों का कब्जा होता जा रहा है। इससे लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के द्वारा, जनता पर शासन’ न बनकर कुछेक परिवारों का जनता पर शासन बनता जा रहा है।
लोकतंत्र की संस्थाओं पर कुछ परिवारों का कब्जा हो जाने की वजह से, आपसी हित के अनुसार नियम और कानून बन रहे हैं। ऐसे में जनता का लोकतंत्र की संस्थाओं से लगातार भरोसा उठता जा रहा है और वो हीरो टाइप नेताओं का चुनाव कर रही हैं, जो कोई चमत्कार कर दे। ऐसे नेताओं के चुन कर आने की वजह से संस्थाओं पर खतरा और बढ़ता जा रहा है। लोकतंत्र की संस्थाओं पर आ रहे खतरे की वजह से 21वीं सदी में फांसीवाद के आने की चर्चा हो रही है। लोकतंत्र की विभिन्न संस्थाओं पर कुछ एक परिवारों के कब्जे की वजह से वंचित तबकों को इन संस्थाओं में समुचित भागीदारी नहीं मिल पा रही है, जिससे उनका इन संस्थाओं पर से विश्वास कम हो रहा है।
आर्थिक असमानता बढ़ने का समाज पर भी काफी नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है जो कि दंगे-फसाद, कटुता फ़ैलने के तौर पर देखने को मिल रही है। लोकतंत्र की संस्थाओं पर कुछ परिवारों के कब्जे की वजह से तमाम समुदाय के लोगों को ऐसा लगने लगा है कि उनकी तरक्की इसलिए नहीं हो रही है, क्योंकि उनके साथ रहने वाले किसी समुदाय ने ज्यादा तरक्की कर ली है। इस प्रकार बढ़ती हुई आर्थिक असमानता लोगों के मनोविज्ञान को प्रभावित कर रही है। उनके साथ या आस-पास रहने वाले किसी समुदाय ने अगर थोड़ी बहुत तरक्की कर ली, तो इस बात को चालू किस्म के नेता जलन का विषय बना दे रहे हैं। कई बार तरक्की की बात सच नहीं होती है, लेकिन वास्तविक कटुता फैला दी जाती है।
आर्थिक असमानता बढ़ने की दृष्टि से यदि शिक्षा व्यवस्था को देखा जाये तो इसमें दो तरह का परिवर्तन आ रहा है। पहला, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा खुद बाजार की वस्तु बनती जा रही है, इसलिए इसको हासिल करना दिनों दिन आम आदमी की पहुंच से दूर की बात होती जा रही है। दूसरा, दुनियाभर के सुपर अमीर समुदाय अपने अनुसार शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करा रहे हैं। मसलन, पिछले एक-दो दशक में भारत समेत दुनियाभर के अलग-अलग देशों में अमीरों के बच्चों को पढ़ने के लिए आईबी और आईजीएसई जैसे अंतर्राष्ट्रीय बोर्ड से संबंधित स्कूल खुल रहे हैं, जहां के कोर्स की संरचना समेत पढ़ने-पढ़ाने का तरीका भारतीय बोर्ड से बिलकुल अलग है। इन्हीं इलीट स्कूलों से पढ़े स्टूडेंट्स दुनिया के अच्छे से अच्छे विश्वविद्यालयों में एडमिशन पा रहे हैं, और वहीं विभिन्न क्षेत्र में लीडर बनाकर भेजे जा रहे हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह नया सुपर अमीर समुदाय आम जनता के बच्चों को अपने बच्चों के साथ पढ़ाने का भी विरोधी है।
आर्थिक असमानता का बढ़ना मानव स्वास्थ्य को विभिन्न तरीके से प्रभावित कर रहा है। ऐसा साबित हुआ है कि भोजन और स्वास्थ्य सेवाएं मानव की जीवन प्रत्याशा (आदमी औसतन कितने साल जिंदा रहेगा) को काफी हद तक निर्धारित करती हैं। इसके साथ ही मनुष्य की कार्यक्षमता का विकास भी भोजन और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता पर निर्भर करता है। बढ़ती आर्थिक असमानता ने स्वास्थ्य सेवाओं पर काफी गहरी चोट की है, क्योंकि अस्पतालों का तेजी से निजीकरण हो रहा है और दवाओं की कीमत तेजी से बढ़ रही है। जैसे भारत में एक दलित महिला अपने समकक्षी उच्च जाति की महिला से औसतन 14.6 साल कम जीती है।
इसी प्रकार बढ़ती आर्थिक असमानता पर्यावरण को भी काफी हद तक प्रभावित कर रही है। हालांकि, इस विषय पर अभी बहुत कम शोध हुए हैं, फिर भी नए शोध से पता चलता है कि आने वाले समय में आर्थिक असमानता के बढ़ने का प्रभाव असमान बारिश, सूखा, हवाओं की दिशा में परिवर्तन, वायु और प्रदूषण में वृद्धि के तौर पर उभरकर आएगा। दरअसल, आर्थिक असमानता बढ़ने से कुछ शहरों और क्षेत्रों में धन और संपत्ति के केन्द्रीकरण का खतरा है। ऐसी जगहों पर ही ज़्यादातर इन्वेस्टमेंट होने की संभावना है। इस तरह से असमानता असंतुलित विकास को जन्म दे रही है, जिसका प्रभाव हमें ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत में छेद के तौर पर देखने को मिल रहा है।
2017 में आयी ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में भारतीय अमीरों की संपत्ति 4.89 लाख करोड़ बढ़कर 20.7 लाख करोड़ रुपये हो गई है। यह 4.89 लाख करोड़ कई राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य बजट का 85 प्रतिशत है। लेकिन इसके बरअक्स देश में गरीबी का पैमाना भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यूं तो सरकार की ओर से गरीबों के कल्याण के लिए ढेरों योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन इसके बावजूद देश में करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को मजबूर हैं। एक सर्वे के मुताबिक देश में अड़सठ करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी का दंश झेल रहे हैं।