आज भी जिंदा हैं महिषासुर के वंशज, नवरात्रि पर मनाते हैं शोक

शारदीय नवरात्रि पर्व का आरंभ हो चुका है। भारत के विभिन्न भागों विशेषकर पश्चिम बंगाल में यह पर्व बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि देवी दुर्गा ने 9 दिनों तक चले महासंग्राम में असुर सम्राट महिषासुर का संहार किया था। लेकिन भारत विभिन्नताओं का देश है। एक तरफ नवरात्रों में 9 दिनों तक असुर महिषासुर का संहार करने वाली मां दुर्गा की आराधना होती है वही देश के सुदूर अंचल में बसे ऐसे इलाके भी है जहां रहने वाले लोग महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं। ये लोग नवरात्रि के 9 दिनों तक शोक मनाते हैं और इन 9 दिनों में इनके यहां कोई भी मंगल कार्य नही होता। 
ये लोग असुर जनजाति के हैं। छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी इलाकों से लेकर पश्चिम बंगाल के जलपाई गुड़ी तक इस जनजाति के लोग फैले हुए हैं। 

किन-किन जगहों पर रहते हैं असुर समुदाय के लोग-
असुर जनजाति के लोग बेहद कम संख्या में बचे हैं। झारखंड के सुखुआपनि, चाईबासा और गुमला जिलों में इस समुदाय के तकरीबन 2000 लोग गांवों और जंगलों में रहते हैं। इसके अलावा बिहार के कुछ इलाकों से लेकर पश्चिम बंगाल और देश के अन्य कुछ राज्यों में इस जनजाति के लोग रह रहे हैं। 
साल 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में इनकी जनसंख्या 22,459 औैर बिहार में 4,129 है। 
असुर जननाति के लोगों का मानना है कि वे लोग महिषासुर के वंशज हैं जिन्हे 9 दिनों तक चले युद्ध में देवी दुर्गा ने मार डाला था। 9 दिनों के इस युद्ध की स्मृति में ही शारदीय नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। 

नौ दिन तक मनाते हैं शोक-
असुर जनजाति के लोग मानते हैं कि महिषासुर इन लोगों के महाप्रतापी राजा थे। स्वर्ग से लेकर पृथ्वी लोक तक उनसे ज्यादा ताकतवर सम्राट कोई भी नही था। देवताओं को लगा कि सम्राट महिषासुर अगर जीवित रहे तो उनकी पूजा होना बंद हो जाएगी। इसलिए सभी देवताओं ने आपस में मिलकर षडयंत्र रचा। महिषासुर स्त्रियों पर वार नही करते थे इसलिए सभी देवताओं ने मिलकर दुर्गा नाम की स्त्री का सहारा लिया और सम्राट महिषासुर की हत्या कर दी। 
इस समुदाय के लोगों के लिए नवरात्रि शोक का दिन है। उत्तर बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले असुर जनजाति के लोग 9 दिनों तक घर से बाहर नही निकलते और जरूरी काम रात में ही निपटा लेते हैं। इस जनजाति के बच्चे मिट्टी के बने शेर के खिलौनों से खेलते समय उसकी गरदन मरोड़ देते हैं क्योंकि शेर दुर्गा का वाहन है। 
झारखंड में रहने वाले इस जनजाति को लोग सोहराई का त्योहार मनाते हैं जो दीपावली के आस-पास पड़ता है। इस दिन ये लोग अपनी नाभि, सीने और नाक पर एक विशेष प्रकार का तेल लगाते हैं जो इस बात का प्रतीक है कि उनके सम्राट महिषासुर का रक्त भी नाक, छाती और नाभि से निकला था। इस दिन ये लोग ककड़ी को महिषासुर की हत्या करने वालों के कलेजे का प्रतीक मानते हुए खाते हैं। यह लोग गाय का दूध भी नही पीते बल्कि बछड़े को पूरा दूध पीने देते हैं ताकि वह मजबूत बने और खेतों में काम कर सके। 
असुर चावल से बनी कच्ची शराब और मुर्गे का मांस अपने पूर्वजों पर चढ़ा कर प्रसाद के तौर पर उसका सेवन करते हैं। 
कहा जाता है कि महिषासुर के मारे जाने के बाद ये लोग जंगलों में फैल गए और लोहे के हथियार बनाने लगे। महाभारत के युद्ध में इन्ही लोगों के बनाए हथियारों का प्रयोग हुआ था। कहा जाता है कि मगध साम्राज्य में इन्ही असुरों द्वारा बनाए गए हथियारों का इस्तेमाल होता था। यहां तक कि सम्राट अशोक के समय के लौह स्तंभों में जो लोहा लगा है वह इसी जनजाति के लोगों द्वारा ढ़ाला गया। इस लोहे में आजतक जंक नही लगा। 


उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने असुर जनजाति के लोगों को बिहार से लाकर उत्तरी बंगाल के चाय के बागानों के इर्द-गिर्द बसाया ताकि ये लोग इन बागानों में काम कर सकें।