सूचना का अधिकार कानून : 15 सालों में 3.33 करोड़ आवेदन लेकिन सूचना पाना आसान नहीं

[अमितेश अग्निहोत्री]
सूचना का अधिकार कानून को लागू हुए 15 साल बीत चुके हैं। यह कानून 12 अक्टूबर 2005 में लागू हुआ था। इस कानून का उद्देश्य सरकारी सूचनाओं तक आम जन की पहुंच सुनिश्चित करना था। विगत 15 सालों में सूचना के अधिकार के जरिए तमाम ऐसी सूचनाऐं बाहर आई जिन्होने सरकारों के माथे पर शिकन लाने का काम किया। 15 साल पहले इस कानून को भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के हाथों में एक प्रभावी हथियार के तौर पर देखा गया था। यह अलग बात है कि तमाम सरकारों ने समय-समय पर इस कानून की धार कुंद करने की भरकस कोशिशें की इन कोशिशों में इस कानून में संशोधन करना और समय पर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति न करना भी शामिल हैं। इसके अलावा अभी भी केंद्रीय और राज्य सूचना आयोग में 31 जुलाई 2020 तक तकरीबन 2.20 लाख अपीलें और शिकायतें लंबित पड़ी हुई थीं। जनहित के इस कानून के प्रति सत्ता की बेरूखी का आलम यह है कि अगस्त महीने से केंद्रीय सूचना आयुक्त के पद पर कोई नियुक्ति नही की गई है।  

सबसे ज्यादा लंबित मामलों में उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर-
गैर सरकारी संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने एक रिपोर्ट पब्लिश की है जिसके अनुसार 12 अक्टूबर 2015 से लेकर अभी तक सूचना के अधिकार के तहत सूचनाएं मांगने के लिए कुल 3.33 करोड़ आवेदन दायर किए गए। 
एक अन्य संस्था सेंटर फॅार इक्विटी स्टडीज की रिपोर्ट के मुताबिक सूचना के अधिकार के तहत लंबित वादों की संख्या के हिसाब से महाराष्ट्र का पहला नंबर आता है जहां कुल 59,000 मामले लंबित हैं। 47,923 लंबित मामलों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे नंबर पर है। 
हालांकि सूचना के अधिकार जैसे अति महत्वपूर्ण कानून के होने के बावजूद बहुसंख्यक जनता में जागृति का अभाव है। प्रति वर्ष सूचना मांगने के आवेदनों को देखें तो पता चलता है कि भारत जैसे विशाल देश में जनसंख्या के मुकाबले इनकी संख्या बेहद कम है। 
इन 15 सालों की बात करें तो ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंटरनेशनल की रिपोर्ट से पता चलता है कि सबसे ज्यादा सूचना मांगने के आवेदन केंद्र सरकार के पास आए। इन आवेदनों की संख्या 92,63,816 रही। इसके बाद राज्यों का नंबर आता है जिसमें महाराष्ट्र पहले नंबर पर आता है। यहां पिछले 15 सालों में सूचना मांगने वाले आवेदनों की संख्या 6,936,564 रही। इसके अलावा कर्नाटक में 3,050,947, तमिलनाडु में 2,691,396, केरल में 2,192,571, गुजरात में 1,388,225, राजस्थान में 1,212,827, उत्तराखंड में 969,511, छत्तीसगढ़ में 896,288, बिहार में 884,102, आंध्र प्रदेश में 804,509, पंजाब में 792,408 और हरियाणा में 613,048, हिमाचल प्रदेश में 484,356, ओडिशा में 411,621, मध्य प्रदेश में 184,112, असम में 182,994, पश्चिम बंगाल में 98,323, जम्मू कश्मीर में 73,452, झारखंड में 67,226, त्रिपुरा में 42,111, गोवा में 32,283, नगालैंड में 28,604, अरुणाचल प्रदेश में 26,152, मेघालय में 18,527, मिजोरम में 16,115, सिक्किम में 5,120 और मणिपुर में 4,374 आवेदन दायर किए गए हैं। 

सूचना के मुक्त प्रवाह में सरकारों ने लगाए हैं अड़गे-
सूचना को अधिकार बनाने वाले इस कानून के बावजूद जरूरी सूचनाओं तक जनता की पहुंच को मुश्किल बनाने के लिए सरकारों ने खूब जतन कर रखे हैं। इसका अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि कुल 29 सूचना आयोगों में से 9 में कोई मुख्य सूचना अधिकारी है ही नहीं। अगर गणितीय भाषा में समझे ंतो 31 प्रतिशत सूचना आयोगों में सरकार ने मुख्य सूचना अधिकारी की नियुक्ति करना जरूरी नही समझा। ऐसा लगता है कि इस मामले में सभी राजनैतिक दल वैचारिक अंतर भुला कर एक हो जाते हैं। इसका अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि कांग्रेस शासित झारखंड और भाजपा शासित त्रिपुरा में सूचना आयुक्त का पद खाली पड़ा है। हालात यह हैं कि यहां लोगो को आरटीआई के जरिए सूचना प्राप्त करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। उड़ीसा में चार सूचना आयुक्त हैं जबकि राजस्थान में तीन सूचना आयुक्त मौजूद हैं। 
सरकार की यह हीलाहवाली सूचना प्राप्ति की प्रक्रिया को दुरूह बना देती है जिसके चलते मुख्य सूचना आयोग में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 

सूचना न देने पर जुर्माना लगाने को मामले बेहद कम- 
सूचना के अधिकार कानून में सूचना की याचना करने वाले को सूचना न देने पर संबंधित अधिकारी पर जुर्माने का प्रावधान है। हालांकि व्यवहार में ऐसे मामले बहुत कम हैं जहां संबंधित अधिकारी सूचना देने में लापरवाही का दोषी मानकर सजा दी गई हो। 2019-20 के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए सेंटर फॅार इक्विटी स्टडीज ने पाया कि सूचना उपलब्ध  करवाने में लापरवाही दिखाने के मामलों की बात करें तो केवल 2 प्रतिशत मामलों में ही जुर्माना लगाया गया था। 1995 मामलों में आयोग ने कुल 2.5 करोड़ का जुर्माना लगाया। सबसे ज्यादा जुर्माना हरियाणा में (65.4 लाख रुपये), उसके बाद मध्य प्रदेश में (43.3 लाख रुपये) और उत्तराखंड में (35.8 लाख रुपये) लगाया गया। 

क्या है सूचना मांगने की प्रक्रिया-
सूचना के अधिकार कानून के तहत किसी विभाग से संबंधित जनसूचना अधिकारी द्वारा सूचना देने से इंकार करने पर आवेदक सूचना आयोग में इसके संबंध में शिकायत दायर कर सकता है। सूचना आयोग इस शिकायत पर विचार कर निर्णय ले सकता है कि संबंधित सूचना दी जा सकती है या नहीं। साल 2005-06 से लेकर साल 2019-20 तक 21.86 लाख शिकायतें दर्ज की गई थीं जो लंबित थी। अकेले केंद्रीय सूचना आयोग में ही पिछले 15 सालों में 302,080 शिकायतें दर्ज हुईं। 
संबंधित जनसूचना अधिकारी को 30 से 45 दिनों के अंदर आवेदनकर्ता को सूचना उपलब्ध करवानी पड़ती हैं। सूचना के अधिकार कानून की धारा 20(1) के मुताबिक निर्धारित समयावधि के अंदर सूचना न देने या गलत सूचना देने पर केंद्रीय या राज्य सूचना आयोग संबंधित जनसूचना अधिकारी पर जुर्माना लगा सकते हैं। इस समयावधि के अंदर सूचना न देने या गलत सूचना देने की स्थिति में जुर्माने की यह राशि 250 रूपये प्रतिदिन से लेकर 25,000 रूपये तक हो सकती है जो कि अधिकतम सीमा है। 
हालांकि आंकड़े बताते हैं कि सूचना आयोगों ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करने में पर्याप्त ढिलाई बरती जिसके चलते सूचना देने से इंकार, गलत सूचना देने या सूचना देने में देरी के मामले बढ़े। 
गौरतलब है कि आम जनता को सरकारी सूचनाओं तक पहुंच मुहैया करवाने वाले देशों की वैश्विक रैंकिंग में भारत का स्थान सातवां है। हालांकि आरटीआई कानून के लागू होने के समय भारत इस रैंकिंग में दूसरे स्थान पर था।