यहाँ हमारी ही चलती है...

वैसे तो हमारे देश में अनेक प्रकार के लोग रहते है लेकिन वर्त्तमान समय में समाज ने इन्हें तीन वर्गों में बाँट दिया है-अमीर,मिडिल क्लास और गरीब| अमीर वर्ग विलासिता एवं उच्च कार्य-स्तर के साथ अपना जीवन व्यतीत करता है| वहीं मिडिल क्लास अपने लिविंग स्टैण्डर्ड को ही मेंटेन करता रह जाता है|इसके साथ ही गरीब वर्ग लाचारी और सुविधाओं के अभाव में निम्न स्तर में अपना जीवन व्यतीत करता रहता है,लेकिन आज इस आपा-धापी भरी दौड़ में इन सभी वर्गों के लोगों की जेब को खाली कराने के दो बड़े बहाने हैं। एक शिक्षा और दूसरा है-चिकित्सा| आज गैर-सरकारी कॉलेजों और स्कूलों की लूट-पाट को रोकने के लिए केंद्र सरकार कड़ी नियमावली का प्रयोग कर रही है,लेकिन इससे परे हमारें लिए सबसे विकट समस्या है-दवा और इलाज के लिए हो रही लूट-घसोट। हम अपने मरीज की जान बचाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार हो जाते हैं,चाहें हम किसी भी वर्ग के क्यों न हो?जिसका फायदा चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे अच्छी तरह उठाया जाता है| आज जनमानस भड़ास अपने व्यूवर्स से कुछ ऐसे कारण बता रहा है,जिससे पता चलता है कि हम कैसे इसमें उलझ जातें है?




आज यदि अमीर वर्ग के परिजन को कोई बीमारी हो जाये या उन्हें कोई शारीरिक कष्ट हो जाएँ तो वे सिटी के बड़े हॉस्पिटल्स में उनका इलाज करा लेतें हैं और अगर उन्हें सिटी के हॉस्पिटल्स या डॉक्टर्स का ट्रीटमेंट समझ में नहीं आता हैं तो वे इलाज के लिए अपने मरीज को दूसरे शहर ले जाते हैं और यदि मरीज को गंभीर बीमारी हो जाती है तो वह इलाज के लिए विदेश भी चले जाते है| वहीं मिडिल क्लास अपने मरीज के इलाज के लिए सिटी के हॉस्पिटल्स और डॉक्टर्स को ही सुगम और बेहतर मानते है और सिटी में ही रहकर अपने मरीज का इलाज कराते है | गरीब लोग प्राइवेट हॉस्पिटल्स में अपने मरीज को एडमिट कराकर उसका इलाज कराने में जब असमर्थ होते हैं तो वह सरकारी अस्पतालों का रास्ता अपनाते है,इन अस्पतालों में भर्ती होकर वे वहाँ के खर्चो से तो कुछ राहत पा लेते है लेकिन उन्हें डाक्टरों की मंहगी दवाइयां फिर भी दिवालिया बना देती हैं। जैसे-10 रु. की दवा 120 रु. में बिक रही है। उस दवा के 120 रु. इसलिए लिए जा रहे हैं क्योंकि उस पर किसी विशेष कंपनी का नाम होता है| इन दवाओ की श्रेणी को “मोनोपॉली” कहते है| मोनोपॉली दवाओं की पैकिंग भी इतनी आकर्षक होती है कि आप मेडिकल स्टोर वाले से दवा की कीमत को लेकर कुछ कह भी नहीं पाते है । अगर उसी दवा को आप और किसी कम्पनी की खरीदतें है तो वह आपको इतनी सस्ती मिल जाती कि आप हैरत में पड़ जाते है कि वह दवा असली है या नकली|


तो ये मोनोपॉली दवा इतनी मंहगी कैसे बिकती है? इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि ये कंपनियां अपने प्रमोशन पर अनेको रुपये खर्च करती हैं। इसके साथ ही साथ डॉक्टर सिर्फ इन्हीं दवाओं को अपने पर्चे में लिख कर दें, इसके लिए उन्हें नगद कमीशन दिया जाता है, मुफ्त दवाइयां दी जाती हैं, मुफ्त विदेश यात्रा दी जाती हैं, मंहगे एवं कीमती तोहफे दिए जाते हैं| इसके साथ ही साथ उनके बच्चों को विदेश में पढ़ाने की सुविधाएं तक भी दी जाती है।


इन सभी सुविधाओ का लाभ उठाने के लिए डॉक्टर साहब दवाओं के नाम अंग्रेजी में ऐसे घसीट कर लिखते हैं कि वे मरीज के पल्ले ही नहीं पड़ती है, लेकिन हॉस्पिटल या डॉक्टर की क्लीनिक के पास बने मेडिकल स्टोर वाले उसे तुरंत समझ लेते है। इन मेडिकल स्टोर्स को भी ये बड़ी कंपनियां पहले से लालच दिये रहती हैं। यदि ग्राहक मेडिकल स्टोर वाले से वैसी ही दवा किसी सस्ती कम्पनी की मांगे,तो ये मना कर देते हैं। ये दवाएं भी उन्हीं तत्वों(फार्मूले) से बनी होती हैं, जिनसे ये दवायें बनी होती हैं। इन दवाओं की गुणवत्ता भी वैसी ही होती है, लेकिन इनसे डॉक्टर और मेडिकल स्टोर को बहुत कम फायदा होता है। इन सामान्य दवाओं का विज्ञापन और प्रचार भी कम ही होता है। हमारे देश में बिकने वाली की दवाइयों में उचित दाम की सस्ती दवाइयों की बिक्री सिर्फ 9 प्रतिशत है। आज सम्पूर्ण देश,प्रदेश और शहरों में इसी तरह उपचार के तरीके अपनाये जा रहे है|चिकित्सा के इन तरीकों से आज लगभग सभी वर्ग के लोग त्रस्त हो चुके है,परन्तु अपने मरीज के अच्छे इलाज के लिए आज हम सभी लोग इस रास्ते पर चुप-चाप चलते ही जा रहें है|


आज जनमानस भड़ास यह अपील करना चाहता है कि यदि केंद्र एवं राज्य सरकार हॉस्पिटल्स,डॉक्टर्स और मेडिकल स्टोर्स की मनमानी वसूली पर सख्ती से पेश आए और दवाओं की कीमत पर नियमावली लागू कर दे तो देश के करोड़ों लोग इस तरह से अपने या अपने परिजनों के इलाज कराने में लुटने से बच सकेंगे।

भड़ास अभी बाकी है...