आखिर ऐसा क्यों हैं?

परिवर्तन ही सृष्टी का नियम हैं,समय बदल गया है|आज हम आधुनिक युग में जीवन व्यतीत कर रहे हैं|आज लड़की और लड़के में फर्क न के बराबर हो गया है। लड़कियों को भी अपने भाइयों के समान ही समान अवसर प्रदान किए जा रहे हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लड़कियां लड़कों से बाजी मार रही हैं। हर मोर्चे पर लड़कियों ने बुलंदी के झंडे गाड़ दिए हैं।आज फिर भी लड़कियों को कमजोर, अबला या निरीह समझा जा रहा है|आखिर ऐसा क्यों हैं?


आज जनमानस भड़ास अपने व्यूवर्स को समाज की सोच(जिसे हम सभी आते है) से रूबरू करा रहा है| हमारा भारतीय समाज प्रारंभ से ही पितृसत्तात्मक सोच वाला रहा है। पिता की संपत्ति पर पुत्र का ही पहला हक़ रहता हैं, ऐसी सोच किसने बनायीं हमारे समाज में| क्या ये सोच केवल पुरूषों की हीं हैं?नहीं| इसके लिए पुरुष वर्ग को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता हैं|  आज भी कहीं न कहीं इस सोच को परिवार या समाज की स्त्रियों का ही समर्थन प्राप्त हैं। ऐसा नहीं है कि यें सोच सिर्फ गांव-देहात में हीं है, बल्कि आज शहरी क्षेत्रों में पॉश इलाकों में रहने वाले हमारे पढ़े-लिखे सभ्य समाज की भी यहीं सोच हैं,गौर करने वाली बात यें हैं कि ये सोच महिलाओं में ही ज्यादा देखने को मिल रही है| यदि महिलाएं ही महिलाओं या कन्याओं के प्रति ऐसा नजरिया रखेंगी,फिर आखिर पुरुष समाज से महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखने की उम्मीद कैसे की जाए?

 

यदि आप भारतीय समाज पर व्यापक दृष्टि डालें तो यही पाएंगे कि पुत्र मोह महिलाओं में पुरुष से भी अधिक होता है। अधिकांश ऐसे परिवार जहां एक दो या तीन लड़कियां पैदा हो जाएं और पुत्र की प्राप्ति न हो सके वहां पिता एक बार भले ही लड़कियों को स्वीकार क्यों न कर ले परंतु एक औरत के अंत तक यही चाहत होती है कि किसी तरह से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जाये। हमारे समाज में आपको अनेक ऐसे परिवार भी मिल सकते हैं,जहां यदि किसी दंपति को एक ही बेटी है और कुछ वर्षो तक पुत्र रत्न की प्रतीक्षा के बाद यदि उस परिवार में पुत्र पैदा नहीं हुआ या पुत्र के पैदा होने की संभावना जाती रही ऐसे में उस परिवार द्वारा अपनी सगी बेटी होने के बावजूद किसी दूसरे के लड़के को गोद भी ले लिया गया।


समाज का दोहरा आचरण


हमारा समाज इस विषय पर इतना दोहरा आचरण रखता है| एक तरफ भारतीय महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुष भी नौ देवियों की पूजा करते दिखाई देते हैं। आहिल्या बाई, महारानी लक्ष्मी बाई और इंदिरा गांधी, कल्पना चावला  जैसी महिलाओं के किस्से सुनाकर भारतीय महिलाओं का गुणगान किया जाता है|वहीँ दूसरी तरफ अपने घर-परिवार की लड़कियों को न तो ऐसी आदर्श महिलाओं के रूप में देखा जाता है,न ही उन पर इतना विश्वास किया जाता है कि भविष्य में मेरी बेटी भी उस स्तर की महिला बन सकेगी। इन सबके बजाए उसे सिर्फ एक अदद पुत्र की ही दरकार होती है। इसी प्रकार सास-बहू के झगड़े की कहावत को सही साबित करने वाली तमाम घटनाएं सोशल मीडिया के इस दौर में वायरल होती रहती हैं। कई बार हम ऐसे वीडियो देख चुके हैं, जिसमें बहू अपनी अपाहिज, विक्षिप्त या शरीर से लाचार बूढ़ी सास को बुरी तरह पीट रही है। बड़े आचर्य की बात है कि वह इसका ख्याल ही नहीं कर पाती कि कुछ ही वर्षो बाद खुद उसे भी इसी दौर से गुजरना है। आज समाज में फैली विभिन प्रकार की कुरीतियों को बढ़ावा देने में भी औरत की हीं हिस्सेदारी है| दान-दहेज का लोभ भी सर्वप्रथम औरत को ही होता है। वही अपने बेटे के लिए अधिक से अधिक दहेज लाने वाली बहू की उम्मीद लगाती है।

 

 

अक्सर ऐसी खबरें भी सुनने में आती रहती हैं कि कोई महिला अपनी नवजात बालिका को कभी रेलवे स्टेशन पर कभी किसी बस स्टॉप पर या फिर किसी गली-कूचे में किसी दरवाजे पर छोड़कर चली गई। किसी नवजात पर इतना बड़ा जुल्म करना उसे लावारिस छोड़ देना कहां की मानवता है? ऐसी घटना भी अधिकतर महिलाओं द्वारा ही की जाती है। निश्चित रूप से पुरुष महिलाओं से अधिक आक्रामक, गुस्से वाला तथा बात-बात पर महिलाओं को आंखें दिखाने की प्रवृति रखने वाला होता है। परंतु देश के चारों ओर से आने वाले समाचार यह भी बताते हैं कि अपने परिवार के विरुद्ध साजिश या षड्यंत्र रचने में औरत का कोई मुकाबला नहीं। देश में हजारों ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें किसी नवविवाहिता महिला ने अपने प्रेमी से मिलकर अपने पति की हत्या करवा दी हो। ऐसी भी अनेक घटनाएं हो चुकी हैं कि किसी महिला ने अपने सौतेले बच्चों और बच्चियों पर इतने जुल्म किये कि या तो बच्चों की मौत हो गई या वे घर छोड़कर भाग गए।

 

आज महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार की वजह में खुद महिलाओं का भी योगदान सामने आ रहा है,यहीं नहीं महिलाओं पर अत्याचार के मामलों में महिलाएं भी काफी आगे है| जिनमे सास-ननद-जेठानी आदि शामिल होती हैं| उन्हें क्रमशःअपना लड़का/भाई/देवर अचानक दूसरे के अधिकार में जाता दिखता है और वे बिना किसी कारण के नयी बहू के विरोध में उठ खड़ी हो जाती हैं| उन्हें हमेशा यही डर सताने लगता है कि कहीं नयी बहू अपने पति को बस में न कर ले| इसके साथ ही साथ यदि घर के पुरुषों ने उसकी सुन्दरता की या उसके द्वारा बनाये गये खाने की तारीफ ही कर दी तो इससे घर की महिलाओं में एक-दूसरे के लिए जलन और विरोध की भावना पैदा कर देती हैं और फिर नयी बहू को परेशान करने,उसे घटिया और निकम्मा साबित करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है| यदि दो तीन साल में बच्चे नहीं हुए तो बिना डॉक्टरी परामर्श के उसे बाँझ घोषित करने में जरा भी देर नहीं की जाती हैं|  यहीं नहीं पति के शराबी,जुआरी होने और अय्याशियों के लिये भी बहू को ही जिम्मेदार  ठहराया जाता है| सब उसे ही कोसते है और वो रानी से नौकरानी बन जाती है,उसे खुद ही ये नहीं पता चलता है| हमारे समाज की सोंच ये है कि लड़की की डोली ससुराल जाती है और केवल अर्थी ही वहां से निकलती है अर्थात उसे मायके का कोई सहयोग या साथ नहीं मिलता है|

 

समाज ये माने और स्वीकार करे कि हमारी बहू भी किसी की बेटी है और हमारी बेटी को भी दूसरे घर जाना है,यदि यही व्यवहार उसके साथ उसकी ससुराल में भी हुआ तब क्या वो हमें स्वीकार होगा?

 

अंत में जनमानस भड़ास अपने व्यूवर्स से सिर्फ इतना कहना चाहता है कि अगर हम  केवल पुरुष वर्ग पर इस बात का दोष मढ़ दें कि केवल पुरुष ही महिला विरोधी मानसिकता रखता है तो ऐसा नहीं हैं बल्कि महिलाये भी महिलाओं की बड़ी दुश्मन हैं। यदि महिलाओं में परस्पर विश्वास की भावना होती और  एक महिला दूसरी महिला का सम्मान केवल महिला होने के नाते भी करती तो आज वृद्धाश्रम में वृद्ध महिलाओं का हुजूम देखने को नहीं मिलता और न ही महिलाओं की इतनी दुर्दशा होती|

भड़ास अभी बाकी है...