पैसा फेकों...तमाशा देखों...

 

 

आज हमारा देश गांव-गांव और शहर-शहर में फैली जुगाड़ टेक्नोलॉजी का भी शुक्रगुजार है। शायद आपका भी यह अनुभव रहा है, जब हम वाहनों की समस्या, मशीनों या इलेक्ट्रिकल या घरेलू या व्यावसायिक ब्रांडेड सामानों की समस्या से घिरे होते हैं तो हमें वे पुर्जे नहीं मिलते जिनकी दरकार होती है। ऐसे में हम लोग जुगाड़ टेक्नोलॉजी की मदद लेते है, और हमारा काम हो जाता है। आज जुगाड़ टेक्नोलॉजी का क्षेत्र बहुत बड़ा हो चुका है। निजी क्षेत्र तो ठोंक-बजाकर अपने पैसों का पूरा फायदा उठाने के लिए अभ्यर्थियों की नियुक्ति करना चाहता है, लेकिन अब इस क्रम में उनका कहना ये है कि तकनीकी संस्थानों से डिग्री या डिप्लोमा लेकर जो छात्र-छात्राएं निकल रहे हैं, वे रोजगार में रखे जाने लायक नहीं होते हैं। आपने इमरान हाशमी की वो फिल्म तो देखी होगी जिसमे पैसे के दम पर होनहार स्टूडेंट्स से परीक्षा दिलाकर जुगाड़ से किसी ऐसे व्यक्ति को डिग्री मिल जाती हैं, जिसे सहीं ढंग से अपना नाम भी लिखना नहीं आता है। ये सारा खेल है पैसो का।

 

 


क्या कहते है आकड़ें?

यदि आंकड़ों की बात करें तो देश में जितने इंजीनियरिंग व टेक्नोलॉजी के पासआउट निकल रहे हैं, उनमें से आईटी क्षेत्र के कुल 28 प्रतिशत से भी कम स्टूडेंट्स मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स की फील्ड में हैजिसमे सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में 8 प्रतिशत स्टूडेंट्स जॉब कर रहे है। अब आप खुद ही समझ सकते हैं कि बाकी पासआउट यदि नौकरी कर भी रहे होंगे तो वे निश्चय ही अपनी डिग्री के अनुरूप नौकरी पर शायद ही होंगे। अधिकांश उच्च स्तर के इंजीनियरिंग पासआउट स्टूडेंट्स अच्छे प्रबंधन संस्थानों में स्पर्धा करके प्रबंधकीय सेवाओं में लगे होते हैं। तकनीकी छात्र ही सिविल सेवाओं में स्पर्धा करने में आगे आ रहे हैं। ये अव्वल स्टूडेंट्स शिक्षक भी कम ही बनना चाहते हैं। अत: उच्च गुणवत्ता वाले तकनीकी शिक्षकों की भी भारी कमी है। इस कारण लाखों की संख्या में कॉलेजों से ऐसे इंजीनियर बाहर निकल रहे हैं जिन्हें खानापूर्ति करने वाले शिक्षकों ने पढ़ाया है।


बढती टेक्नोलॉजी और पैसा बन रही कारण

 

आज टेक्नोलॉजी एवं ज्ञान इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि जल्दी-जल्दी नए पाठयक्रमों, लैबों व मशीनों की टेक्निकल अध्ययनों में जरूरत पड़ती है जिनको पूरा करने का अत्यंत महंगा काम हर संस्थान की जेब से बाहर हो जाता है। नतीजन नदी की धारा उल्टी बहने लगी है। पहले जहां व्यावसायिक तकनीकी संस्थानों को खोलने के लिए होड़ लगी रहती थी, वहां अब खोले गए तकनीकी कॉलेजों को बंद करने की सरकार से अनुमति मांगने वालों की कतार लगी हुई है। जहां पहले की प्राथमिक कक्षाओं में तथाकथित निजी स्कूल में सरकारी स्कूलों से पहले भर्ती की प्राथमिकता रहती है,ठीक इसके विपरीत इंजीनियरिंग एवं तकनीकी शिक्षाओं में पहली प्राथमिकता सरकारी संस्थान होते हैं।

 

 


 

 

एक तरफ तो ऐसे दाखिलों के लिए प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा रहती है, वहीं दूसरी तरफ वह मां-बाप जिनके पास पैसा है, डोनेशन या भारी फीस देकर जो सामाजिक दिखावे के लिए अपने बच्चों पर 'इंजीनियर' होने का ठप्पा लगवाना चाहते हैं, जिसका फायदा पूंजीपतियों ने तथाकथित इंजीनियरिंग मैनेजमेंट कॉलेजों को खोलकर उठाया। वे काफी वर्षों तक उसमें सफल भी हुए किंतु जब ऐसे संस्थानों का झूठ व खोखलापन खुला तथा उनके प्लेसमेंट आदि के खोखले दावों की पोल खुली तो आज उनको विद्यार्थियों के भी लाले पड़ गए हैं। जिन बच्चों को अपना नाम भी सही से लिखना नहीं आता आज उनके हाथ में अपने माँ-बाप की दौलत के कारण ऐसी डिग्रियाँ है, जिनसे कितने मेधावी छात्र-छात्रायें अभी तक वंचित है।यहीं कारण हैं कि पिछले कुछ वर्षों से सुसाइड नोट में अपने माता-पिता से उनकी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के लिए माफी मांगते हुए कई होनहारों ने आत्महत्याएं की हैं।

 

 

आज जनमानस भड़ास अपने व्यूवर्स से यह अपील कर रहा है कि हमें इन सारी स्थितियों से अपने बच्चों को बचाने के लिए माता-पिता, अभिवावक  और समाज के विभिन्न रूपों में रहते हुए आत्ममंथन से समाधान ढूंढने होंगे और उस राह पर बढ़ना होगा, जिससे कि कोई और स्टूडेंट इस प्रकार का गलत कदम उठाने का प्रयास न करें|

भड़ास अभी बाकी है...