ये व्यस्तता है या दिखावा....

आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाओं ने हमारी ज़िंदगी को बहुत आसान कर दिया है। ऑफ़िस के साथ-साथ घर के काम करने के लिए भी आधुनिक उपकरण आ गये हैं जैसे- कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन, मसाला पीसने के लिए मिक्सर ग्राइंडर, बरतन धोने के लिए वॉशर इत्यादि। आज ये मशीनें हमारी ज़िंदगी को चला रही हैं, उसे आसान बना रही हैं। इसकी मदद से हम सभी वक़्त बचाकर ज़्यादा से ज़्यादा काम कर सकते हैं, लेकिन आज के समय में ठीक इसका उल्टा हो रहा है। आज हमारे पास वक़्त की ही सबसे बड़ी कमी है, क्योंकि हम सभी के पास ढेर सारा काम है। लोगों के पास अपने परिवार तक के लिए समय नहीं। बहुत से लोग घर में भी रहते हैं तो वहां ऑफिस का ही काम कर रहे होते हैं। हम काम में कितने व्यस्त रहते हैं, इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जाता हैं की कभी कभी तो हम अपना लंच या डिनर ही नी लेते है। इस सच्चाई को जानने के लिए एक सर्वे कराया गया। हैरान करने वाली बात यह थी कि इस सर्वे में भी बहुत से लोग शामिल नहीं हो पाये क्योंकि उनके पास इतना भी वक्त नहीं था। सवाल उठता है कि क्या वाक़ई लोग उतने व्यस्त हैं जितना वो साबित करते हैं या यह सिर्फ़ दिखावा है?

स्वयं में व्यस्तता का होना

हम सभी घर के काम में व्यस्त हों या ऑफिस के काम में, हाल के दशकों में हमारी व्यस्तता में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है बल्कि देखा तो यह गया है कि आज हम भी अपने बच्चों के साथ पहले की तुलना में ज़्यादा समय बिताते हैं। अब सवाल ये उठता है कि क्यों लोग अपने को ज़्यादा व्यस्त महसूस करते हैं?आज जनमानस भड़ास इस सवाल के जवाब में कहना चाहता है कि बदलती अर्थव्यवस्था है। इसका कारण क्योकि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है, लोगों की आमदनी भी बढ़ी है, उनका रहन-सहन स्तर भी बेहतर हुआ है। वहीं लोगों के लिए वक्त सबसे ज़्यादा क़ीमती हुआ है। आज काम करने के जितने घंटे दिए जाते हैं, उतने में हमें काम करके देना होता है। इसलिए काम का दबाव बढ़ने लगता है। जिस ज़माने में अर्थव्यवस्था खेती-बाड़ी पर निर्भर करती थी। उस दौर में लोगों के समय की वो क़ीमत नहीं थी जो आज है। उस अर्थव्यवस्था में लोगों पर शारीरिक मेहनत का बोझ ज़्यादा होता था। एक वक़्त के बाद दूसरे काम के लिए समय का इंतज़ार करना पड़ता था। जैसे फसल अगर उगा दी है, तो, उसके पकने तक का इंतज़ार करना ही पड़ता था। वहीं आज इसके विपरीत हमें बिज़नेस में तरह-तरह के आइडिया पर काम करना होता है, मीटिंग करनी पड़ती हैं, मेल के जवाब देने होते हैं।वहीं स्मार्टफोन आपके हाथ में हैं तो फिर आप चाहे फिर छुट्टी पर हैं या घर पर हैं या कहीं भी, हम लोग सभी जगह ऑफिस का काम करते रहते हैं। नतीजा यह है कि हम इस भूल में रहते हैं कि हमारे पास बहुत काम है और हम हर समय व्यस्त रहते हैं। हमारी एक नज़र घड़ी पर वहीं दूसरी नज़र काम पर रहती है। मनोचिकित्सक कहते हैं इस तरह काम निपटाने से आपके काम पर असर पड़ता है। हम दिमाग़ी तौर पर हर वक़्त ख़ुद को व्यस्त महसूस करते हैं। इस आपाधापी में जो काम ज़रूरी हैं, वो भी नज़र अंदाज़ होने लगते हैं। घर और ऑफिस, दोनों जगह कामयाबी से सारे काम निपटाने का हम पर सामाजिक दबाव भी होता है। यह एक मुश्किल काम है, हर समय खुद को व्यस्त महसूस करना एक तरह की सोच है। यह एक ऐसी स्टेज होती है, जब इंसान को किसी खास तरह की कमी का एहसास होने लगता है, फिर चाहे वो पैसे की कमी हो या फिर वक़्त की कमी। इस भाव की वजह से आपको फ़ैसले लेने में भी दिक़्क़त होती है। हम अपने समय का सही इस्तेमाल नहीं कर पाते। नतीजा यह होता है कि हमारे ज़रूरी काम भी छूटने लगते हैं। हमारी यह सोच और पुख्ता होती चली जाती है कि हम हर वक्त व्यस्त हैं। इसका एक और ख़राब असर यह होता है कि हम काम से कभी निजात नहीं मिलती।जब फुरसत के कुछ पल नसीब होते भी हैं, तो उसमें भी हम लोग सोचते हैं कि चलो इस समय का कुछ सदुपयोग किया जाये औऱ कुछ काम कर लिया जाये। हम यह भूल ही जाते हैं कि ज़्यादा प्रोडक्टिव होने के लिए ज़रूरी है कि खुद के लिए भी थोड़ा वक़्त निकाला जाये। इस समस्या से निजात पाने के लिए सभी जगह काम के घंटे भी सीमित कर दिए गए है. फिर भी हम लोग हर वक़्त व्यस्त हैं। इतिहास गवाह है, जिन लोगों ने भी खूब धन-संपत्ति जमा की, कामयाबी हासिल की या समाज में अपना अलग मुकाम बनाया, उसकी वजह आज़ादी थी, फुर्सत से बिताए कुछ पल थे। जब लोग खुद से बात करने, अपने हुनर को पहचानने के लिए वक़्त निकाल लिया करते थे। वे लोग हर वक्त काम में व्यस्त नहीं रहते थे।

गलत धारणा का होना

आज ख़ुद को सबसे ज़्यादा व्यस्त बताना बड़ा आदमी होने की निशानी बन गया है और आज कहीं न कहीं ये भी माना जाने लगा है कि जो लोग समाज में ऊंचा मुक़ाम हासिल करते हैं वो हर वक्त व्यस्त रहते हैं। हालांकि यह बेहद ग़लत सोच है।वे कहते हैं कि शुरू में ये ताले खोलने वाला इंसान धीरे काम करता था। अक्सर ताले तोड़ डालता था, लेकिन उसके पास आने वालों की लाइन लगी रहती थी।जैसे-जैसे उसका काम बेहतर होता गया, उसके ग्राहक कम हो गये। वजह यह थी कि लोग उसकी क़ाबिलियत से ज़्यादा उसके वक़्त लगाकर काम करने को अहमियत देते थे। आज यही सोच हम सभी पर हावी हो गई है। लोग समझते हैं कि जो ज़्यादा वक़्त देता है, वही अच्छा काम करने वाला है। हम किस काम को कितने बेहतर तरीक़े से निपटाते हैं, अहम यह है ना कि यह कि हमने इसके लिए कितना वक़्त लिया।


आज जनमानस भड़ास अपने व्यूवर्स से यह अपील कर रहा है कि हमें अपनी व्यस्तता को दूर रखकर अपने परिवार को भी समय देना चाहिये। आजकल अधिकतर जगह देखने को मिल रहा हैं कि लोग अपने काम में इतना मशगूल हो जाते है कि वह अपने खान-पान पर भी ध्यान नहीं देते है। हम अपने काम को इसी बात से मापने लगते हैं कि हमने कितना वक़्त लगाया? इस बात पर तवज्जो नहीं होती कि वो काम कितना सही हुआ है? काम की क्वालिटी पर ग़ौर करने के लिए हमें टाइम चाहिये और वक़्त तभी मिल पायेगा, जब आप सोचने के लिए वक़्त निकालेंगे।

भड़ास अभी बाकी है...