हम सभी स्वार्थी होते जा रहे हैं या...

 

क्या हम सभी स्वार्थी होते जा रहे हैं या हम लोगो की सहन शीलता बढ़ गयी है या हम लोग कायर हो गये हैं। यूँ भी कह सकते है की हम सभी जड़ होते जा रहे है, जिस तरह पेड़ की जड़ एक ही जगह जमी रहती है, ठीक उसी प्रकार से आज हम सभी सिर्फ अपने घर-परिवार की ही चिंता करने लगे है। हमे मिलकर इस बात का निर्णय लेना ही होगा की हम क्या हैं? क्यों हम लोग किसी भी बात को जो हमारे घर-परिवार से सम्बन्ध नहीं रखती उस पर प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते हैं? क्यों हम लोग समाज को बदलते देखते रहते है बिना किसी भी हस्तक्षेप किये, चाहे वो नकारात्मक दिशा मे ही क्यों न जा रहा हो। सच तो ये है की आज हम इतने स्वार्थी हो गये है की जिस देश/प्रदेश/शहर में हम रह रहे है, हमें उसकी भी चिंता नहीं है हमारा देश/प्रदेश/शहर कहाँ जा रहा है?इस समाज का क्या हो रहा है? कोई कुछ करता क्यों नहीं? बस इसी तरह के कुछ आदतन बातें कह कर हम फिर से अपने-अपने कामों में लग जाते हैं या कहें कि हम अपने दायित्व से ही बाहर नहीं आ पाते है, यह हम सभी के लिये बहुत ही पीड़ा दायक है। हकीकत में देखा जाये तो आज हम सभी कायर हो चुके हैं या यूँ भी कह सकते है कि हम सभी स्वार्थी हो गये है। कहीं हम किसी परेशानी मे न पड़ जाये और हमारा जीवन जो सुचारू रूप से चल रहा है वो कहीं बाधित न हो जायें इस कारण आज हम सभी को मौन रहना या अपना पल्ला झाड़ते हुये कह देना कि “कौन-सी मेरी या मेरे घर-परिवार की बात है ” ज्यादा अच्छा लगने लगा है।

 

ये भेदभाव क्यों?

 

 

हमें क्या करना? अगर ये भी हम सभी की आदत होती तब भी ठीक होता, हम इसे बदल सकते हैं, लेकिन हम लोग तो दोमुहाँ व्यवहार करते है और इसे अपनी सहूलियत के अनुसार अपना लेते है। हमारा अपने-अपने घर-परिवार मे एक रूप और बाहर दूसरा रूप होता है। इसका मतलब साफ़ है कि हम अपने घर-परिवार और देश/प्रदेश/शहर के लिये अलग-अलग धारणायें रखते है। जब भी हम सभी के परिवार पर कोई विपदा आती है तो हम उसे शासन और समाज से जोड़कर देखते हैं परन्तु जब समाज या अन्य किसी पर विपदा आती है तो हम उसे अपने घर-परिवार से जोड़कर कर क्यों नहीं देखते? कहने पर असभ्य लगता है इसी से पता चलता है कि हम सभी दोमुहें है। हम लोगों को अपने बचपन से लेकर आज उम्र तक कि सब बातें चाहे वह बहुत अच्छी हो या बहुत बुरी, सब याद रहती हैं और हम सभी उनका उत्तर ढूँढने कि कोशिश हर वक़्त करते रहते है कि वो बात कैसे ठीक कि जायें,या वो बात किस तरह से बन सकती है? उन परेशानियों का क्या सबब था और क्या हासिल था। हमारे घर मे कोई हादसा हुआ था तो कैसे हुआ और उसका कौन जिम्मेदार था और उसका क्या परिणाम हुआ? हमें सब कुछ याद रहता है, लेकिन बात जब देश/प्रदेश/शहर/समाज की आती है तो हम लोगो की दिमागी हालत बिगड़ जाती है,हम भूल जाते है या भूल जाना चाहते हैं,हम लोगो को किसी चीज़ से सरोकार नहीं रहता क्योंकि यह देश/प्रदेश/शहर/समाज का मसला है, हमारे घर या परिवार का नहीं।

इस देश मे कितने काण्ड हुये है और आज भी हो रहे हैं। हम रोज़ अखवार मे पड़ते हैं, किसी ने दुष्कर्म किया,कोई औरत जला दी गई ,किसी के मुंह पर तेज़ाब फेंक दिया ,करोड़ो रूपये घोटाले हुये, छोटे बच्चो के ज़िस्म्फरोश पकडे गये।यहाँ फर्जीवाडा, वहां घोटाला, तस्करी, भुखमरी, कहीं चारा घोटाला,कहीं मुंबई बम ब्लास्ट तो कहीं दिल्ली बम ब्लास्ट, सड़क निर्माण घोटाला, भूमि पर अवैध कब्ज़ा जैसे और न जाने कितने अपराध...और हम लोगों ने क्या किया?


भड़ास अभी बाकी है