जड़ हो रहा जनमानस “भाग-6”

केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अपने अपने बजट में स्कूली शिक्षा पर एक बड़ी राशि खर्च करने के बावजूद हमारे देश के सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छुपी नहीं है। खास तौर से शिक्षकों द्वारा पढ़ाने का स्तर इस पूरी शिक्षा व्यवस्था की सबसे कमज़ोर कड़ी है। आखिर ऐसा क्यों है? जबकि  सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी तो आम इंसान ही हैं फिर भी वे ऐसा भेदभाव क्यों करते है? आज जनमानस भड़ास निम्न स्तर की बन गयी सरकारी स्कूल सिक्षा व्यवस्था के विषय पर प्रकाश डाल रहा है, सरकार द्वारा इतना बजट खर्च करने के बाद भी क्यों हम लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल्स में पढ़ाना पसंद करते हैं? हमारे देश/प्रदेश/शहर के सरकारी स्कूलों में बड़ी संख्या में अप्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती ने इस समस्या को और भी गंभीर बना दिया है। परिणामस्वरूप हम लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की बजाए निजी स्कूल में पढ़ाने को प्राथमिकता देते हैं। सरकारी स्कूलों में नामांकन में आई कमी का अर्थ यह नहीं है कि शिक्षा के प्रति हमारी रूचि कम हो गई है बल्कि सरकारी स्कूलों के शैक्षिक स्तर में गिरावट होने से हम सभी अभिवावकों को यह एहसास होने लगा हैं कि कि यहां हमारे बच्चों का भविष्य यहाँ उज्जवल नहीं है।

 

 

कॉम्पिटिशन में अंग्रेजी का वर्चस्व

 

प्रतियोगिता का दबदबा

 

कॉम्पिटिशन के इस दौर में जहां प्राइवेट नौकरियां ही एकमात्र विकल्प हैं, ऐसे में हमारे बच्चों को अगर आगे रहना है तो सरकारी नहीं बल्कि निजी स्कूल ही उचित होगा, लचर शिक्षा व्यवस्था से हमने ये मान लिया है। आज हमें इस बात पर यकीन है कि प्राइवेट कंपनियों के वर्क कल्चर और उस वातावरण को तैयार करने की क्षमता निजी स्कूलों में होती है। यह वर्क कल्चर वास्तव में अंग्रेजी भाषा से जुड़ा है। हम अभिभावकों को लगता है कि सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, वह भी नाममात्र के लिए। जबकि प्राइवेट स्कूलों में हिंदी विषय को छोड़कर अन्य सभी विषयों को न केवल अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है बल्कि स्कूल परिसर में छात्रों को अंग्रेजी भाषा में ही बात करने के लिए प्रेरित भी किया जाता है। उन्हें विश्वास है कि अंग्रेजी भाषा से स्कूली पढ़ाई करने वाले बच्चों को भविष्य में मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ, मैनेजमेंट और पत्रकारिता की पढ़ाई कराने वाले देश के उच्च शिक्षण संस्थाओं में आसानी से प्रवेश मिल सकता है। जबकि सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों को इन्हीं क्षेत्रों में प्रवेश पाना मुश्किल हो जाता है। यूपीएससी जैसे देश के प्रतिष्ठित प्रतियोगिता परीक्षाओं में भी अंग्रेजी माध्यम वाले परीक्षार्थियों का दबदबा ही हमारी आशंकाओं को बल देता है। 

 

भड़ास अभी बाकी है...