मस्जिदों में दिए जला रहे हिन्दू और मंदिरों में मूत रहे मुसलमान...भई वाह!

 

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और देश का संविधान हर नागरिक से यह अपेक्षा करता है कि वह विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की आस्था और विश्वास का सम्मान करेगा, लेकिन व्यवहारिक धरातल पर देखें तो केवल बहुसंख्यक वर्ग पर ही देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाये रखने की जिम्मेदारी थोप दी गयी है। भले ही उसकी आस्था पर चोट होती रहे लेकिन वह प्रतिकार करता है तो धर्मनिरपेक्षता के कथित अलम्बरदार उस पर साम्प्रदायिक होने का आरोप मढ देते हैं, वैसे सेक्युलरिज्म के इन पैरोकारों के कदम उन इलाकों में जाने से ठिठक जाते हैं जहाँ बहुसंख्यक वर्ग गिनती में कम हो जाता है। ऐसी जगहों पर भारत का संविधान काम करना बन्द कर देता है और धर्मनिरपेक्षता के रक्षकों को दिन में रतौंधी हो जाती है। फिर भले ही बहुसंख्यक वर्ग के उपासना स्थल सार्वजनिक “मूत्रालय” बना दिये जायें या अवैध कब्जा कर उनको कूड़ाघरों में तब्दील कर दिया जाये। ऐसा ही कुछ नजारा जनमानस भड़ास की टीम को कानपुर शहर के बेकनगंज और चमनगंज जैसे इलाकों में देखने को मिला। तमाम ऐसी जगहें हैं, जहाँ धर्मनिरपेक्षता द्रोपदी बन जाती है और हर रोज उसका चीरहरण होता है। हमारी पड़ताल में कई मंदिर ऐसे मिले जहाँ कभी आरतियों की घंटियां बजा करती थीं मगर अब इन जगहों पर अवैध कब्जे हो चुके है। ऐसा एक मंदिर बाबा लस्सी वाले चैराहे से दादामिंया चैराहे की तरफ जाने वाली सड़क पर मिला। यहाँ तकरीबन सौ साल से ज्यादा पुराना मंदिर है जो अब उजड़ा पड़ा हुआ हैं।

 

 

 

एक स्थानीय निवासी ने बताया कि यह मंदिर जिस परिवार की सम्पत्ति था वे लोग 1931 में हुए दंगों में यह इलाका छोड़कर चले गये। हालांकि जाते समय उस परिवार ने यहाँ एक पुजारी को रख दिया था और साठ साल तक यहाँ सुबह-शाम आरती होती, घंटे और घड़ियाल बजते। तब इस जगह पर जन्माष्टमी पर मेला लगा करता था। सन 1992 में हुए दंगों के बाद पुजारी और उसके परिवार को यह इलाका छोड़ना पड़ा और मंदिर वीरान हो गया। आज यहाँ आस-पास रहने वाले लोग कूड़ा डालने के अलावा लघुशंका का निवारण भी करके चले जाते है। इसी चैराहे के समीप तीन मंदिर और मिले जिनकी कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यहां एक मंदिर के अंदर चाय की दुकान चलती मिली। नाम न छापने की शर्त पर एक स्थानीय निवासी ने बताया कि यह प्रापर्टी एक अग्रवाल परिवार की है जिसे बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद भड़के दंगो में यह जगह छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। उसके बाद कुछ स्थानीय दबंग टाइप के लोगों ने इस जगह पर कब्जा कर लिया और अब यहाँ चाय की दुकान है। हमारी टीम ने चोरी छुपे इस जगह की फोटो ली और आगे बढ़ गयी। कुछ दूरी पर एक और मंदिर दिखायी दिया। लखौरी ईटों से बनी इस मंदिर की दीवारों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह तकरीबन डेढ़ से दो सौ साल पुराना होगा। आज इसकी दीवारों पर कीलें गाड़ कर कपड़े सुखाये जाते हैं। इस छोटे से मंदिर के अंदर फोल्डिंग पलंग पड़ा हुआ दिखा। इसी सड़क पर एक और मंदिर भी दिखा मगर स्थानीय लोगों के सम्भावित विरोध की आशंका के चलते हमारी टीम ने उसकी तस्वीर नही ली।

इलाके को जानने वाले बताते है कि बेकन गंज और चमनगंज में तकरीबन दो दर्जन से ज्यादा ऐसे ही मंदिर है जिनकी कहानी अमूमन ऐसी ही है। इन इलाकों से गुजरने के बाद शहर के धार्मिक एवं सद्दभाव की हकीकत मालूम पड़ती है। लोकतंत्र का यहाँ कोई मतलब नहीं, संविधान केवल अपने मतलब के लिये है। फिर मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना वाली लाइन याद कर हंसी आने लगती है। यहाँ दूसरों के धार्मिक विश्वास का सम्मान करने की बातें हवा हवाई है। इन मंदिरों में लगी तमाम मूर्तियों की नियति बामियान के बुत जैसी हो गयी। कुछ बच भी गयी तो उनकी कदर करने वाला कोई नही बचा। आस-पास के लोगों के लिये यह बुत परस्ती की निशानियाँ है जो हराम है। यहाँ पास में सर सैयद खान के नाम से लाइब्रेरी भी है जिसे देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि पढ़े-लिखों की जमात भी यहाँ मौजूद है। मगर धार्मिक कट्टरता अक्ल पर ताला लागा देती है। वैसे इन इलाकों के जन प्रतिनिधियों को भी ये नजारे नही दिखे। वोट बैंक की राजनीति के लिये धर्मनिरपेक्षता के मायने ही अलग है।

बाबरी मस्जिद को गिराये जाने के 27 साल बाद यहाँ का माहौल काफी बदल चुका है। बेकनगंज और चमनगंज कपड़ों के व्यापार के लिये जाना जाता है। इसके अलावा भी यहाँ इलेक्ट्रानिक्स के सामान से लेकर ज्वैलरी की दुकानें भी हैं। चाहे होली, दीवाली हो या ईद, हर त्योहार पर बाजार भीड़ से भरे रहते हैं। व्यापार के तार है तो धर्मनिरपेक्ष होना मजबूरी भी है। लेकिन सत्तर परदों से ढ़कने के बाद भी असली किरदार को छुपाया नही जा सकता। इस बात की गवाही खंडहरों में तब्दील हो चुके यह मंदिर दे रहे है।

 

 

सन् 92 के दंगों में कश्मीर बन गये इस इलाके से बहुसंख्यक वर्ग को पलायन के लिये मजबूर होना पड़ा और इन मंदिरों की दुर्गति होनी शुरू हो गयी। आज इन जगहों पर अवैध कब्जा हो चुका है। अब कल्पना करिये कि किसी बहुसंख्यक वर्ग के इलाके में मौजूद अल्पसंख्यक वर्ग के उपासना स्थल का यह हाल हुआ होता तो क्या होता? शायद धर्मनिरपेक्षता वेंटिलेटर पर जा चुकी होती।

 

भड़ास अभी बाकी है...