दीन और बिस्तर के बीच जी रही मुस्लिम औरतें...

 

बांसमंडी में रहने वाली आलिया (बदला हुआ नाम) को बाक्सिंग का शौक है। उसका चचेरा भाई ग्रीन पार्क में क्रिकेट सीखने जाता था तो उसे पता चला कि वहां बाक्सिंग भी सिखाई जाती है, लेकिन कट्टर मजहबी परिवार से ताल्लुक रखने वाली आलिया को इस बात की इजाजत नही है कि वह बिना परदे के बाहर निकले। उसका दाखिला भी इलाके के ऐसे स्कूल में हुआ है जहाँ केवल मुस्लिम लड़कियाँ ही पढ़ सकती हैं। बाक्सिंग सीखने जायेंगी तो बुर्का उतार कर स्पोर्ट्स किट में घर से बाहर निकलना पड़ेगा जो उनके परिवार और आस-पड़ोस को हरगिज मंजूर नही होगा। हीरामन का पुरवा में रहने वाली सादिया (बदला हुआ नाम) की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। सादिया को मेडिकल की पढ़ाई करने के लिये बाहर नही जाने दिया गया क्योंकि घर वालों का कहना था बेटी की पढ़ाई परदे के दायरे के भीतर ही जायज है और इस दायरे से बाहर निकलना हराम है। वैसे जब सादिया की चाची की डिलिवरी का वक्त आया तो इनके पड़ोसी ने एक निजी अस्पताल में जाने की सलाह दी क्योंकि वहाँ की महिला डॉक्टर काफी काबिल थी। ये अलग बात है कि वह गैर मुस्लिम थी।

 

 

दीन और दुनिया में से किसी एक को चुनना भारतीय मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी गफलत है। यही वजह है कि सन 2011की जनगणना के मुताबिक भारत के 42.72 प्रतिशत मुसलमान अनपढ़ हैं, जबकि धार्मिक आधार पर हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ी तादाद मुस्लिमों की ही है। मुस्लिम महिलाओं की बात करें तो हालात और ज्यादा खराब है। जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि केवल 25.29 प्रतिशत मुस्लिम महिलायें ही पढ़ी लिखी हैं जिसमें 11.51 प्रतिशत प्राइमरी एजुकेशन से आगे नहीं बढ़ पायीं है। 7.32 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं ने  कक्षा 8 तक पढने के बाद स्कूल छोड़ दिया, जबकि 4.63 प्रतिशत महिलायें सेकेन्डरी तक और 3.31 प्रतिशत हायर सेकेन्डरी तक पहुँच पायीं। इन आंकड़ों के मुताबिक उच्च शिक्षा के क्षे़त्र में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति ढूँढ़ते रह जाओगे वाली है। केवल 1.75 प्रतिशत महिलायें ही उच्च शिक्षा यानी ग्रेजुएशन और उससे आगे तक पहुँच पाती हैं। जबकि 0.12 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओें के पास टेक्निकल या नॉन टेक्निकल डिप्लोमा है।

 

लेकिन अफसोस इस बात का है कि क्यों इस समाज में आज भी महिलाओं की शिक्षा जैसे टॉपिक कभी मुद्दा नहीं बनते। पूरी दुनिया इक्कीसवी सदी में पहुँच गयी है लेकिन मुसलमान है कि मध्यकालीन सोच को छोड़ने के लिये तैयार ही नही है। अगर कोई महिला इन रूढ़ियों को तोड़ने की हिम्मत दिखाती है तो मर्दवादी इस्लामी समाज उसके पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है। ऐसे लोगों के लिये औरत का मतलब बिस्तर की जीनत और बच्चे पैदा करने की मशीन से ज्यादा नहीं है। शायद यही वजह है कि यह समाज जायरा की आजाद पहचान को बर्दाश्त नही कर पाता और उसे वापस बुर्के में कैद होता देख कर खुश होता है। इन्हें लेडी डॉक्टर तो चाहिये लेकिन इनके समाज से कोई महिला डॉक्टरी पढ़ने की ख्वाहिश लिये बाहर निकलने की कोशिश करे तो नाजुक सा दीन खतरे में आ जाता है। जायरा वसीम की पोस्ट पर होने वाले कमेंट्स को पढ़ कर समझ नही आता कि यह समाज औरत और उसके शरीर को लेकर इतना ज्यादा कुंठित क्यों है? तमाम मजहबी कट्टरपंथी इसे जायरा का निजी मामला बता कर उसकी हिमायत कर रहे है। जबकि इन्हें हर उस महिला से नफरत है जो इनके समाज का रोल मॉडल बन सकती है। जायरा कश्मीर से आती है जहाँ कट्टरपंथी हर उस महिला को खाने क लिए तैयार बैठे है जो आजाद सोच रखती है। यहाँ के लोगो की मानसिकता की झलक देखनी हो तो घाटी की पहली महिला रेडियो जॉकी के फेसबुक पेज पर पोस्ट किये जाने वाले कमेंटो को पढिये। इन कमेंटो में उसे कोसा जाता है क्योंकि वह हिजाब नहीं पहनती और संगीत के क्षेत्र में काम करती है जो कि इस्लाम में हराम है। मजहब की बेडिंयां तोड़ कर अपने-अपने क्षे़त्र में मुकाम बनाने वाली मुस्लिम महिलाओं की काबिलियत की तारीफ करने की बजाय उन्हे हिजाब नही पहनने और उनके पहनावे पर बेहूदा और अश्लील कमेन्ट करने का जैसे दस्तूर बन गया है।

 

 

जायरा कहती है कि वह इच्छाओं और शोहरत के चलते बहक गयी थी लेकिन अब वह अल्लाह के रास्ते पर चलना चाहती हैं। 18 साल की जायरा अपने फैसले लेने के लिये आजाद है, लेकिन उन हजारों लड़कियों का क्या जो उनकी कम्युनिटी से आती है और जायरा की कामयाबी ने उनके हौंसलों को पंख देना शुरु कर दिया था। जैसा कि तस्लीमा नसरीन अपने ट्वीट में कहती है कि मुस्लिम समाज ने न जाने कितनी प्रतिभाओं को बुर्के में कैद कर दिया जाता है। वैसे धर्म के रास्ते पर चल कर वासना को खत्म किया जा सकता तो जायरा के फैसले पर वाह वाह कर रहे कट्टरपंथियों की औलादें न होती। 


भड़ास अभी बाकी है...