(सहीफा खान की कलम से)
हाल ही में केंद्र सरकार की ओर से पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना जारी की गई थी जिस पर जनता से उनकी टिप्पणी भी मांगी गई थी। लेकिन जब से यह मसौदा जारी हुआ है इसका विरोध लगातार जारी है। जिससे सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर #SatyagrahAgainstEIA2020टॉप ट्रेंड पर पहुंच गया। इसके अलावा विरोध का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि अधिसूचना को भारत के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद केवल दस दिन के अंतर सरकार को 1144ऐसे ईमेल प्राप्त हुए जिसमें इस मसौदे का कड़ा विरोध दर्ज करात हुए पर्यावरण मंत्रालय से इसे वापस लेने की मांग की गई थी।
यूं तो भारत में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास बहुत ही पुराना है, कहा जाता है कि हड़प्पा संस्कृति पर्यावरण से ओत-प्रोत थी, तो वैदिक संस्कृति पर्यावरण-संरक्षण हेतु पर्याय बनी रही। इसी कारण भारतीय संस्कृति में केला, पीपल, तुलसी, बरगद आम आदि पेड़ पौधों की पूजा की जाती रही। मध्यकालीन एवं मुगलकालीन भारत में भी पर्यावरण प्रेम बना रहा। आज़ादी के बाद 1972के स्टॉकहोम सम्मेलन ने भारत सरकार का ध्यान पर्यावरण संरक्षण की ओर खिंचा। सरकार ने 1976में संविधान संशोधन कर दो मह्तवपूर्ण अनुच्छेद 48ए तथा 51ए जोड़ें। अनुच्छेद 48ए राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार सुनिश्चित करे तथा देश के वनों तथा वन्यजीवन की रक्षा करे।
लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के बाद 1986में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक कानून बनाया गया। इसी कानून के तहत साल 1994में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) नियमों का जन्म हुआ। इसके जरिये कई प्रावधान निर्धारित किए गए ताकि प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की निगरानी की जा सके। ईआईए अधिसूचना आने के बाद विभिन्न परियोजनाओं को इससे गुजरना होता था और इसके तहत सभी शर्तों का पालन किए जाने की स्थिति में ही परियोजनाओं को कार्य शुरू करने की मंजूरी दी जाती थी।
हालांकि आगे चलकर इसमें कुछ बदलाव किए गए और साल 2006में एक नई अधिसूचना जारी की गई जिसे हम ईआईए अधिसूचना, 2006के नाम से जानते हैं। अब मोदी सरकार इसमें और बदलाव करना चाहती है, जिसके लिए एक नई अधिसूचना का ड्राफ्ट जारी किया गया है।
क्यों हो रहा विरोध?
इस ड्रॉफ्ट के विरोध का मुख्य कारण है कि इसमें जनता को विचार विमर्श से कोसो दूर रखा गया है। उदाहरण के तौर पर देश की सीमा पर स्थित क्षेत्रों में रोड या पाइपलाइन जैसी परियोजनाओं के लिए सार्वजनिक सुनवाई (पब्लिक हीयरिंग) की जरूरत नहीं होगी। विभिन्न देशों की सीमा से 100किमी. की हवाई दूरी वाले क्षेत्र को ‘बॉर्डर क्षेत्र’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके कारण उत्तर-पूर्व का अच्छा खासा क्षेत्र इस परिभाषा के दायरे में आ जाएगा, जहां पर देश की सबसे घनी जैव विविधता है। इसके अलावा सभी अंतरदेशीय जलमार्ग परियोजनाओं और राष्ट्रीय राजमार्गों के चौड़ीकरण को ईआईए अधिसूचना के तहत मंजूरी लेने के दायरे से बाहर रखा गया है।
ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंड्स यूनियन (AAPSU) ने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधिकारियों से मिलकर इस मसौदे को अरुणाचल प्रदेश सहित पूर्वोत्तर राज्यों के लिए विनाशकारी करार दिया है। उनके अनुसार अरुणाचल प्रदेश लंबे समय से भारत का कार्बन सिंक एरिया है। इसलिए यह ड्रॉफ्ट पर अमल हुआ तो बड़े पैमाने पर परिस्थितिक अंसतुलन और विनाश के अलावा स्थानीय समुदायों के अस्तित्व के लिए खतरा साबित हो सकता है। यह मसौदा ईआईए पोस्ट फैक्टो को मंजूरी देने का भी प्रस्ताव रखता है जिससे उन परियोजनाओं के लिए अनुकूल साबित होगा जो गैर कानूनी तरीके से इस क्षेत्र में चल रहे हैं। इसके अलावा भी कई संगठनों समेत विपक्ष ने भी इस ड्रॉफ्ट का कड़ा विरोध किया है। विपक्ष नेता राहुल गांधी ने इसे ‘लूट ऑफ नेशन’ कहा।
EIA2020 ड्राफ़्ट का मक़सद साफ़ है - #LootOfTheNation
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) August 10, 2020
यह एक और ख़ौफ़नाक उदाहरण है कि भाजपा सरकार देश के संसाधन लूटने वाले चुनिंदा सूट-बूट के ‘मित्रों’ के लिए क्या-क्या करती आ रही है।
EIA 2020 draft must be withdrawn to stop #LootOfTheNation and environmental destruction.
जनता के स्वाभाव और व्यवहार में बदलाव के बिना पर्यावरण संरक्षण संभव नहीं है। इस संबंध में यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सरकार को चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण और उत्तरदायी जीवन को जनता के स्वाभाव का हिस्सा बनाया जाए। पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की व्याख्याएँ मौजूदा क्षेत्रों से कम नहीं होना चाहिए। किसी भी तरह के अपवाद की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इन व्याख्याओं का और अधिक विस्तार किया जाना चाहिए जिससे निवास क्षेत्रों में रहने वाले उन जनजातियों को भी शामिल किया जा सके जो रहन-सहन की पारंपरिक शैली को अपनाए हुए हैं।
(भड़ास अभी बाकी है)