हिरासत में होती रही मौतें और सोती रही सरकार

[सहीफ़ा खान]

केंद्र सरकार के गृहराज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने बुधवार को संसद में बताया कि केंद्र सरकार हिरासत में यातना देने के मामलों को रोकने के खिलाफ कोई कानून बनाने की योजना नही बना रही है। संसद में सरकार द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक अप्रैल 2019 से लेकर मार्च 2020 तक देश भर में पुलिस हिरासत में 1697 लोगों ने अपनी जान गवाई। इनमें से 1584 मौतें न्यायिक हिरासत में हुई जबकि पुलिस हिरासत में 113 मौतें हुईंर्। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक देश में पिछले दस सालों में हर रोज पुलिस हिरासत में 5 लोगों की मौत होती है। साल 2010 से 2020 तक न्यायिक और पुलिस हिरासत में कुल 17,146 लोगों की मौतें हुई हैं। ऐसा नही है कि यह सारी मौतें केवल पुलिस की पिटाई या थर्ड डिग्री टार्चर दिए जाने के कारण हुई हों। इनमें से तमाम मामलों में कैदियों को समय पर इलाज न दिए जाने, बीमारी, उपचार में लापरवाही बरतने, खराब रहनसहन, मनोवैज्ञानिक समस्या या बुढ़ापे जैसे अन्य कारण भी शामिल रहे। 

2 जुलाई 2020 के दिन तमिलनाडु पुलिस ने  59 वर्षीय पी. जयराज और उनके 31 वर्षीय बेटे बेनिक्स को लॉकडाउन नियमों का उल्लंघन कर तय समय से अधिक वक्त तक अपनी मोबाइल की दुकान खोलने के लिए 19 जून को गिरफ्तार किया। दो दिन बाद एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई थी।
जयराज और बेनिक्स के परिजनों ने हिरासत में पुलिस द्वारा उनके साथ बर्बरता किए जाने का आरोप लगाया था। इस मामले में दो सब इंस्पेक्टर सहित 6 लोगों को पिता और पुत्र को बर्बरता के साथ पीट-पीट कर हत्या करने के मामले में क्राइम ब्रांच सीआईडी ने गिरफ्तार कर लिया। मामले ने तूल पकड़ा तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य के डीजीपी को विस्तृत रिपोर्ट के साथ पेश होने का आदेश दिया। इस मामले ने पुलिस द्वारा यातना दिए जाने के चलते होने वाली मौतों को चर्चा के केंद्र में ला दिया। 


मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के पुलिस हिरासत में अगर किसी कैदी की मौत होती है तो इसकी सूचना 24 घंटे में मुहैया करानी होती है। लेकिन इन निर्देशों में सबसे बड़ा लूप होल यह है कि पुलिस द्वारा रिपोर्ट न पेश करने की सूरत में किसी भी तरह की सजा का प्रावधान नहीं है। 
भारतीय जेल अंग्रेजी सरकार की सामंती व्यवस्था के बचे हुए अवशेषों में से एक हैं। यहां कहने के लिए तो हर कैदी के मानवाधिकार हैं लेकिन व्यवहार में ऐसा नही होता। कैदी अगर वीआईपी है तो उसे हर तरह की सुख-सुविधाएं मिलती हैं और कई बार तो उसे आराम मुहैया कराने की यह कवायद कानूनी सीमाओं को भी तोड़ देती है। वहीं आम कैदी के लिए जेल की जिंदगी नरक से बदतर है। यहां साफ-सफाई से लेकर पीने योग्य साफ पानी, नहाने-धोने, साफ-सफाई, उपचार आदि की सुविधाएं भी मिलना मुश्किल है। इसका एक उदाहरण मशहूर तेलगू कवि वरवर राव हैं जो भीमा कोरेगांव केस में जेल में बंद हैं। 84 साल के वरवर राव को जेल में बंद रहने के दौरान कोरोना हो गया और उन्हे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यह सब तभी संभव हो पाया जब उनके परिवार ने मीडिया के माध्यम से सरकार को घेरा। इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि देश की जेलों में बंद कैदियों में ज्यादातर संख्या दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों की है जिनके साथ जेल में अमानीवय व्यवहार किए जाने की खबरें आती रहती हैं। 

सरकार ने संसद में जो आंकड़े पेश किए हैं उनके मुताबिक न्यायिक हिरासत में हुई मौतों के मामलों में योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश ने शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। यहां सबसे ज्यादा 400 मौतें पुलिस की हिरासत के दौरान दर्ज की गईं हैं। इसके बाद के मध्य प्रदेश में 143, पश्चिम बंगाल में 115, बिहार में 105, पंजाब में 93 और महाराष्ट्र में 91 मौतें हुई हैं। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों में संख्या के अनुसार 14 मौतों के साथ मध्य प्रदेश सबसे आगे है। इसके बाद तमिलनाडु और गुजरात में 12-12 मौतें दर्ज की गईं हैं।

देश में मौजूद कुल 1350 जेलों की क्षमता 4,03,739 कैदियों की है जबकि इनमें 4,78,600 कैदियों को रखा गया है। यह इन जेलों की क्षमता से कही अधिक है। ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन कैदियों को किस किस्म की यातनाओं से गुजरना पड़ता होगा। 
 
इस मामले में सबसे ज्यादा नारकीय स्थिति उत्तर प्रदेश की है। यहां कुल 72 कारावास मौजूद हैं जिनकी क्षमता 60,340 कैदियों की हैं जबकि वर्तमान में यहां 1,01,297 कैदी बंद हैं। यह आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि धार्मिक किताबों में जिस नरक का वर्णन किया गया है वो यूपी की जेलों जैसा ही होगा।  
इसके अलावा कैदियों को यातना देने के पुलिसिया तरीके भी इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले हैं।
 
नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर की एक रिपोर्ट बताती है कि कैदियों को यातना देने के लिए पुलिस उन सभी तरीकों को अपनाती है जिनका इस्तेमाल साइकोपैथिक अपराधी अपराध को अंजाम देने में करते हैं। इन तरीकों में डंडे मारना, उल्टा लटकाना, या गुप्तागों में रोड डालना या लाल र्मिर्च पाउडर उडेलना, गर्म सरिये से शरीर दागना, पैर के तलवों पर बेतहाशा प्रहार ,हाथ की या पैर की हड्डियां तोड़ना, महिलाओं का बलात्कार और गुप्तांगों या जननांगों पर बलपूर्वक प्रहार जैसे घृणित तरीके भी पुलिस द्वारा अपनाए जाने की खबरें सामने आती रहती हैं। 

इंडियन लॉ कमीशन ने वर्ष 1984 और फिर 1994 में सरकार को सुझाव दिया था कि यदि पुलिस हिरासत में किसी की मौत होती है तो सीधे तौर पर पुलिस को जिम्मेदार माना जाए, पर इस सुझाव को आजतक सरकार ने स्वीकार नहीं किया है। हालांकि भारत ने साल 1997 में संयुक्त राष्ट्र की एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें कैदियों के साथ होने वाले टार्चर, क्रूर और अमानवीय व्यवहार पर रोक लगाने की बात कही गई है। इसके बावजूद साल 2005 से लेकर अब तक किसी भी पुलिसकर्मी को हिरासत में मौत होने का जिम्मेदार मानने का मामला सामने नही आया। जाहिर है कि सजा भी नही हुई। इस तरह से सरकार ने न केवल विधि आयोग की सिफारिश बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ की संधि के प्रावधानों को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया। केंद्र सरकार ने वैसे भी संसद में बोल दिया है कि वो कैदियों को हिरासत में यातना दिए जाने के खिलाफ कोई कानून लाने के बारे में नही सोच रही है।