[अमितेश अग्निहोत्री]
कोविड-19 महामारी के इस दौर में मौत से मुनाफा कमाने की साजिश बेनकाब होती दिख रही है। मार्च-अप्रैल के दौरान संक्रमण के शुरूआती दौर में रेमडेसिविर को कोरोना के लिए प्रभावी दवा बताया गया था। उस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन की निगरानी में दुनिया के कई देशों में कोविड-19 से लड़ने के लिए कई दवाओं को ट्रायल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा था जिसमें रेमडेसिविर भी एक थी। इसके अलावा तीन और दवाओं पर परीक्षण करने किए जा रहे थे जो थी- हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन, लोपनाविर-रिटोनॉविर और इंटरफेरोन। अब डब्लूएचओ ने साफ कर दिया है कि रेमडेसिविर का कोविड-19 वायरस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। डब्लूएचओ सॉलिडेरिटी ट्रॉयल के नतीजों में यह बात साफ हो गई है कि यह दवा कोरोना मरीजों की मृत्यु दर को रोकने में नाकाम रही है। भारत में डब्लूएचओ की इस रिपोर्ट के बाद भी रेमडेसिविर के ट्रायल जारी हैं। गौरतलब है कि ट्रायल के दौरान कोई भी कंपनी दवा को मुफ्त में मुहैया करवाती है लेकिन इस दवा को औने पौने दामों पर खरीदा गया। यहां तक कि इस दवा की कालाबाजारी भी हुई और 6000 रूपये की कीमत वाला एक इंजेक्शन 40000 रूपये तक में बेचा गया। यह सब मोदी सरकार की नाक के नीचे हुआ। कोरोना काल में रेमडेसिविर की कहानी यह बताती है कि किस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया की सरकारों के सहयोग से जनता को लूटा करती हैं।
क्या कह रही है डब्लूएचओ की रिपोर्ट-
डब्लूएचओ द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 30 देशों के 405 अस्पतालों में कुल 11,666 मरीजों पर रेमडेसिविर का ट्रायल किया गया। इस दौरान यह देखा गया कि इस दवा का मृत्यु दर घटाने, श्वसन संबंधी समस्याओं को रोकने और अस्पताल में भर्ती रहने की अवधि में कोई प्रभाव नही पड़ा है। यह परीक्षण 6 महीने तक चले और इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य यह पता करना था कि वर्तमान में मौजूद एंटी वॉयरल दवाएं कोरोना वायरस पर कितनी प्रभावी हैं। अब यह बात साफ हो गई है कि रेमडेसिविर का कोरोना संक्रमित मरीजों पर कोई प्रभाव नही पड़ा या बिल्कुल मामुली प्रभाव पड़ा।
नकारा साबित हुई रेमडेसिविर को बेच कर गिलियड ने कमाए अरबों डालर-
गिलियड साइंस ने कोरोन महामारी का फायदा उठाते हुए रेमडेसिविर को जमकर बेचा और अरबों डॉलर कमा लिए। इस कंपनी ने भारत और बांग्लादेश जैसे विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों में इस दवा का पेटेंट बेच कर अरबों डॉलर कमाए। अमेरिकी सरकार ने इस दवा का सारा स्टॉक शुरूआत में ही खरीद लिया था। रेमडेसिविर को लेकर गिलियड के रवैये ने अमेरिका में अमेरिका में एक नई बहस को जन्म दिया। चिकित्सा जगत के विशेषज्ञ और सामाजिक संगठनों का कहना था कि जब देश महामारी के भीषण दौर से गुजर रहा है और हजारों जानें जा रही हैं तो पेटेंट नियमों को ताक पर रख लोगों की जान बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इन लोगों की मांग थी कि अगर रेमडेसिविर इतनी ही कारगर है तो बाकी कंपनियों को भी इसे बनाने की इजाजत मिलनी चाहिए। महामारी का दौर बीत जाने के बाद पेटेंट के नियमों की बात की जा सकती है। लेकिन गिलियड पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा और उसने मौत के डर को मुनाफे मे तब्दील करने में लगी रही।
भारत में रेमडेसिविर का खेल-
भारत में आईसीएमआर ने कोरोना के शुरूआती दौर में ही रेमडेसिविर के ट्रायल की इजाजत दे दी। इसके साथ ही इस खेल की शुरूआत हो गई। नियम यह है कि जिस दवा का ट्रायल चल रहा होता है उस दवा को बनाने वाली कंपनी उसे मुफ्त में देती है। लेकिन देश में कोरोना महामारी जनित आपदा बहुतों के लिए अवसर बन गई। आईसीएमआर के निदेर्शो के बाद इस दवा को खरीदा गया वो भी बेहद महंगी कीमत पर। इस दवा के एक इंजेक्शन की कीमत 6,000 रूपये थी और एक मरीज को कम से कम 6 इंजेक्शन दिए जाते थे। इतनी ऊंची कीमत होने के बाद इस दवा की कालाबाजारी भी हुई और इसका एक इंजेक्शन 40,000 रूपये तक की कीमत पर बिका। गिलियड साइंस ने चार कंपनियों सिप्लाष् जुबिलिएंट लाइफ़ हिटेरो ड्रग्स और माइलॉन को भारत में इस दवा को बनाने का लाइसेंस दिया।
क्या है रेमडेसिविर-
रेमडेसिविर अमेरिकी कंपनी गिलियड साइंस द्वारा बनाई गई एंटी वायरल दवा है। इस दवा शुरूआत में हेपेटाइटिस-सी के वायरस का इलाज करने के लिए बनाया गया था। बाद में पाया गया कि यह दवा हेपेटाइटिस-सी के वायरस पर कोई खासा प्रभाव नही डालती है। इसके बाद इबोला वायरस के इलाज के लिए इसे इस्तेमाल किया गया लेकिन वहां भी यह असफल सिद्ध हुई। बताया जाता है कि गिलियड ने इस दवा के विकास के लिए डॉलर पानी की तरह बहाए लेकिन यह रकम वसूल नही हो पाई। कंपनी ने इस दवा को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस साल जब कोरोना संक्रमण फैलना शुरू हुआ तो कंपनी को इससे वापस मुनाफा कमाने की आस नजर आई और हर तरह के वायरस पर फेल हो चुकी इस दवा को कोविड-19 वायरस पर आजमाने का निश्चय किया गया।
कैसे हुआ चिकित्सकीय इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला-
बताया जाता है कि इस दवा की मैन्यूफैक्चरिंग लागत काफी कम है और अमेरिका में एक मरीज को दस दिन तक इस दवा को देने की लागत तकरीबन 10 डॉलर के करीब बैठती है। अमेरिका में इस दवा के कलीनिकल ट्रॉयल पर वहां के नेशनल हेल्थ इंस्टीट्यूट ने पैसा लगाया। इसके बाद भी इसकी लागत तकरीबन 3000 डॉलर के करीब बैठी।
डब्लूएचओ के इस दवा पर ट्रॉयल शुरू करते ही आईसीएमआर ने भारत में इस दवा के चिकित्सकीय ट्रॉयल की अनुमति दे दी। भारत में इस दवा को लेकर घोटाले की शुरूआत यहीं से होती है।
जब ट्रॉयल में दवा मुफ्त होती है तो आईसीएमआर ने कैसे दी खरीदने की अनुमति-
चिकित्सा जगत इस बात को जानता है कि जिस दवा का इस्तेमाल ट्रॉयल के लिए होता है वह दवा कंपनी मुफ्त में देती है। इसके बाद भी आईसीएमआर ने इस दवा को खरीदने की अनुमति दे दी। इस दवा को बहुत ही महंगे कीमत पर खरीदा गया और इसकी काला बाजारी के मामले भी सामने आए। देश के महंगे अस्पतालों ने बाकायदा अपने मरीजों को यह दवा बतौर प्रिस्क्रिपशन लिख कर दी। कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए राज्यों में से एक महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में 1 अक्टूबर को बीएमसी ने 72,000 रेमडेसिविर के इंजेक्शन खरीदने का ऑर्डर दिया।
कोरोना के नाम पर खेला जा रहा खेल-
अब डब्लूएचओ ने पूरी दुनिया में रेमडेसिविर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है क्योंकि यह बात साफ हो गई है कि गिलियड साइंस की यह दवा कोरोना वायरस पर बेअसर साबित हुई है। लेकिन भारत में आईसीएमआर बेशर्मी पर उतर आया है। आईसीएमआर और नेशनल एड्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर समीरन पांड्या ने कहा है कि भारत में रेमडेसिविर के ट्रॉयल चलते रहेंगे। उन्होने कहा कि ड्रग अथॉरिटी ऑफ इंडिया से अभी तक इस संबंध में कोई भी निर्देश नही मिले हैं। इस खेल को समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर डालने की जरूरत नही है। बात एकदम साफ है कि जबतक गिलियड साइंस और उससे जुड़ी कंपनियां अपनी कंडम हो चुकी दवा रेमडेसिविर का सारा स्टाक खत्म नही कर लेती तब तक इसके ट्रॉयल पर रोक नही लगाई जाएगी। भले ही डब्लूएचओ ने कह दिया हो कि रेमडेसिविर कोरोना के मरीजों पर बिल्कुल ही बेअसर है।
तो सरकार क्या कर रही है-
अब सवाल ये उठता है कि इतना सब कुछ हो रहा है तो हमारी सरकार और प्रधानमंत्री मोदी जी क्या कर रहे है। कैसे उनकी नाक के नीचे ही राजधानी दिल्ली में रेमडेसिविर का एक इंजेक्शन 30,000 रूपयों तक में बिका और सरकार सोती रही। उससे भी बड़ा सवाल यह है कि ड्रग अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने इस दवा के ट्रायल को रोका क्यों नही जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस दवा के ट्रायलों पर रोक लगा दी है क्योंकि यह दवा कोविड-19 वायरस पर बेअसर साबित हुई है।
इसकी वजह यह है कि रेमडेसिविर बनाने वाली कंपनी गिलियड साइंस में बिल गेट्स के शेयर भी हैं बिल गेट्स अपनी पत्नी मिलिंडा गेट्स के नाम पर कथित तौर पर चैरिटी फांउडेशन चलाते हैं और इसका लक्ष्य पूरी दुनिया में तमाम बीमारियों के लिए वैक्सीन तैयार कर उन्हे कम कीमतों में उपलब्ध करवाना है। पहली नजर में देखने पर यह काफी अच्छा और मानव कल्याणकारी कदम लगता है। इसके लिए गेट्स और उनका फांउडेशन एक कार्यक्रम भी चलाता है। 18 नवंबर साल 2019 को गेट्स भारत दौरे पर आए और प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की। इस दौरान उन्होने यहां के फार्मा सेक्टर की तारीफ करते हुए इसे काफी संभावनाओं वाला बताया और अपने ग्लोबल वैक्सीनेशन कार्यक्रम से भारत को जोड़ने की पेशकश की जो मोदी सरकार द्वारा कुबूल कर ली गई। गौरतलब है कि सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा बनाई जा रही कोरोन की वैक्सीन में भी बिल गेट्स का पैसा लगा हुआ है। बिल गेट्स और उनके फांउडेशन पर मोदी सरकार बेहद मेहरबान है। मोदी पहले ही देश के कुछ चुनिंदा औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए आलोचना के शिकार बनते रहे हैं। अब बिल गेट्स से सरकार की गलबहियां की कीमत देश को चुकानी पड़ रही है। यही वजह है कि बिल गेट्स के शेयर वाली गिलियड साइंस ने अपनी कंडम दवा रेमडेसिविर को खपाने के लिए भारत को चुना और दुनिया भर में इसके ट्रायल बंद हो जाने के बाद भी भारत में इसके ट्रॉयल चालू हैं।
यह मानने के अच्छे भले कारण है कि कोरोना के इलाज में