किसी भी लोकतांत्रिक देश में आय की भारी असमानता लोकतंत्र की सबसे बड़ी असफलता होती है। कुछ यही स्थिति इस समय हमारे देश की है। ऑक्सफैम की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार यदि भारत में आर्थिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन नहीं किया गया तो चमकते इंडिया के नीचे एक सिसकता और कराहता भारत बना रहेगा। भारत में हाल के वर्षों में जिस प्रकार आर्थिक असमानता में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, वह बेहद चिंताजनक है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि कुछ लोगों की संपत्ति में भारी वृद्धि हुई है, तो करोड़ों लोग और भी गरीब हुई है।
रिपोर्ट के मुताबिक देश के ऊपरी एक प्रतिशत वर्ग के पास देश की 40 प्रतिशत पूंजी है, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत के पास केवल 3प्रतिशत। रिपोर्ट में चौंकाने वाला तथ्य यह है कि देश के गरीब, अमीरों के मुकाबले सरकार को ज़्यादा टैक्स देते हैं, क्योंकि अमीरों की तुलना में आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर गरीब ज़्यादा खर्च करते हैं। उदाहरण के लिए नीचे का 50 प्रतिशत वर्ग खाने के सामान, गैर खाने के आइटम्स और दोनों को मिलाकर भी टैक्स का 64 प्रतिशत देता है। मिडिल क्लास जो 40 प्रतिशत है कुल टैक्स का औसतन 31 प्रतिशत देता है, जबकि ऊपर का धनी वर्ग केवल 3-4 प्रतिशत टैक्स देता है।
समाजशास्त्रियों के मुताबिक समाज के एक बड़े वर्ग का जीवन जीने की ज़रुरी शर्तों से लंबे समय तक वंचित रहना खतरनाक साबित हो सकता है। देश बेरोज़गारी और महंगाई की समस्याओं से जूझ रहा है। जब सामान्य लोगों की क्रय क्षमता कम हो तो महंगाई लोगों के जीवन स्तर को कम कर देती है। हाल के समय में कॉरपोरेट टैक्स में कमी की गई है, वहीं दूध-दही जैसी ज़रुरी खाने पीने की चीज़ों में जीएसटी वृद्धि कर दी गई है।
कॉरपोरेट टैक्स में कमी करते हुए सरकार ने कहा था कि इससे नए निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी, लेकिन कंपनियों ने कॉरपोरेट टैक्स में छूट का लाभ तो लिया पर निवेश में कमी अभी चिंता का विषय बनी हुई है। 64 प्रतिशत जीएसटी 50 प्रतिशत गरीब दे रहे हैं, जबकि अमीर केवल दस प्रतिशत।
प्रगतिशील कर प्रणाली मूलतः आय आधारित होती है। प्रत्यक्ष कर में तो इसका पालन हो जाता है परंतु अप्रत्यक्ष कर की चपेट में देश का गरीब व्यक्ति भी आ जाता है। स्पष्ट है कि अप्रत्यक्ष करों के संदर्भ में सरकार को अत्यंत संवेदनशील होने की ज़रुरत है। इसलिए सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह जीवनोपयोगी वस्तुओं को जीएसटी के दायरे से बाहर रखे।
अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि कोविड काल में भी भारत के अमीरों का प्रदर्शन अच्छा रहा और 2020 से 2022 के बीच अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 166 हो गई। अध्ययन से अनुमान जताया गया कि इस अवधि में देश के अरबपतियों की संपत्ति हर मिनट 121 प्रतिशत यानी करीब 2.5 करोड़ रुपये बढ़ी। ऐसे समय में जब देश मुश्किलों से जूझ रहा था और बेरोज़गारी दर ऊंची बनी हुई थी तब अमीरों की संपत्ति में यह बढ़ोत्तरी हैरतअंगेज़ है। केवल दो वर्षों में 64 नए अरबपतियों के बढ़ने का आशय क्या है?
विश्वभर के आर्थिक विशेषज्ञों में इस बात पर सहमति बढ़ रही है कि आर्थिक विकास समावेशी नहीं है और उसमें टिकाऊ विकास के तीन ज़रुरी पहलू आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण शामिल नहीं है तो वह गरीबी कम करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में दसवें लक्ष्य का उद्देश्य बढ़ती असमानता को कम करना रखा गया है। वर्तमान में आर्थिक असमानता से उबरने का सबसे बेहतर उपाय यही होगा कि वंचित वर्ग को अच्छी शिक्षा, रोज़गार उपलब्ध कराते हुए सुदूरवर्ती गांवों को विकास की मुख्यधारा में जोड़ा जाए। इसके लिए कल्याणकारी योजनाओं पर ज़्यादा खर्च करने की ज़रुरत है।
कल्याणकारी अर्थव्यवस्था में सरकार की कोशिश रहती है कि आय और संपत्ति के मामले में असमानता कम से कम की जाए। आज़ादी के बाद से भारत इस ओर प्रयासरत था और 1991तक के आंकड़ों में इस बात की मिसाल मिलती है कि हर साल असमानता कम होने की ओर अग्रसर थी, लेकिन वर्ष 1991में उदारीकरण लागू होने के बाद से असमानता तेज़ी से बढ़ी। उद्योग हितैषी नीतियां लागू की गईं और कॉरपोरेट को ज़्यादा से ज़्यादा सहूलियतें मिलने लगीं। इस क्रम में उद्योग और कंपनी क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने की गरज से ऐसी नीतियां लागू हुईं जिनसे देश में पूंजी का प्रवाह और निवेश बढ़ा। लेकिन उदारीकरण के एकदम बाद के वर्षों में श्रम बल अपेक्षानुरुप कुशल नहीं मिला। उद्योग क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छंटनी हुई। निवेश बढ़ाने की गरज से बड़े उद्योगों को सहूलियतों में इज़ाफे के बीच कॉरपोरेट टैक्स में कटौती जैसी व्यवस्थाएं तो की गईं लेकिन आमजन को लाभान्वित करने के लिए कोई ज़्यादा प्रयास नहीं हुई। जीएसटी संग्रह में बढ़ोत्तरी को एक उपलब्धि के रुप में गिनाया जाता है, लेकिन यह टैक्स आम जन को भारी पड़ रहा है। उसके लिए आटा और पेंसिल, कागज़ जैसी चीज़ें भी महंगी हो गई हैं। आम जन को संपत्ति और आय में असमानता के दंश से बचाने के लिए यदि करों को ही तर्कसंगत कर दिया जाए तो काफी बड़ी राहत मिल सकती है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि यदि भारतीय अरबपतियों की संपत्ति पर मात्र दो प्रतिशत कर लगाया जाए तो तीन साल तक के कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए सभी ज़रुरतों को पूरा किया जा सकता है। भारत के 10 सबसे अमीरों पर एक 5 प्रतिशत कर लगाया जाए तो 1.37 लाख करोड़ रुपये मिलेंगे। यह स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के बजट से 1.5 गुना अधिक है।
स्पष्ट है कि अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने के लिए सरकार को कॉरपोरेट टैक्स छूट पर पुनर्विचार करना चाहिए और अतिरिक्त प्रगतिशील संपत्ति कर अरबपतियों पर लगाना चाहिए। भारत में अधिकांशस रोज़गार असंगठित क्षेत्र में है, और वह क्षेत्र नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन से अब तक उबर नहीं पाया है। इसलिए आर्थिक समानता के लिए इस क्षेत्र पर ज़ोर देना आवश्यक है। आर्थिक नीतियां ऐसी बनें, जिनसे गरीब को भी आगे बढ़ने का पूरा अवसर मिले। आय और संपत्ति में बढ़ते अंसतुलन को दूर करने के उपाय देश की सामाजिक व आर्थिक नीति से ही निकाले जा सकते हैं। एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते भारत का सदैव यह प्रयास होना चाहिए कि वह नागरिकों को एक अधिकारयुक्त जीवन देने के साथ साथ समाज में व्याप्त भारी आर्थिक असमानता को दूर करे।
भड़ास अभी बाकी है....